स्वतंत्रता किसे कहते हैं व परतंत्रता कब उचित होती है?

 

स्वतंत्र वह है जिसके अधीन शरीर, मन आदि इन्द्रियां  हो। किसी को उसके कर्मों का फल मिलना, तभी, न्याय संगत है यदि, उसे कर्मों को करने की स्वतंत्रता हो। यह तो सभी मानते हैं कि जीवात्मा को उसके कर्मों का फल भोगना पड़ता है तो, हमें यह भी मानना पड़ेगा कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं। ऐसा सोचना बिलकुल गलत है कि कर्म कोई ओर करता है और उसका फल जीवात्मा को भोगना पड़ता हैं। जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, परन्तु कर्म करने के पश्चात, ईश्वर की न्याय व्यवस्था के अनुसार उस कर्म का फल भोगने में वह  परतन्त्र है।

यदि जीव पूर्णतया परतन्त्र होता, तो उसका विकास न हो पाता। उसे अपने बुद्धि के प्रयोग का कोई अवसर ही न मिलता। यदि जीव पूर्णतया स्वतंत्र होता, तो वह बुरा काम करके भी भला फल चाहता। सबको पूर्ण स्वतंत्रता देना कल्पना मात्र है। एक की स्वतंत्रता दूसरे की परतन्त्रता का कारण हो जाती है। उदाहरणार्थ, सड़क पर यदि सभी यात्री पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर लें और उसका प्रयोग करने लगें, तो एक गाड़ी दूसरी से टकरा जाए। अत: स्वतंत्रता की सीमा भी होती है। सामाजिक नियम बहुजन के हित को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। उनके पालन में, यदि व्यक्ति के अपने हित पर लगाम लगती है, तो उसे उसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

व्यक्ति की कर्म-स्वातन्त्र्य इस बात से मापी जाती है कि उसे कर्म को करने, न करने या उल्टा करने का अधिकार प्राप्त हो। जीवात्मा के कर्म-स्वातन्त्र्य को जांचने का भी यही माप-दण्ड है। कुछ व्यक्तियों का कहना है कि हम कर्म करने वाले कौन होते हैं ? ईश्वर ही हमारे कर्मों का प्रेरक है, परन्तु ऐसा मानने वाले, केवल अच्छे कार्य ही ईश्वर द्वारा प्रेरित मानते हैं। बुरे कर्मों को भी, ईश्वर द्वारा प्रेरित मानने के विषय में वे मौन धारण कर लेते हैं।

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