सफलता मापने के लिए कौन सा मापदण्ड उचित है?

 

आज का समाज अज्ञान से आछादित है। इसमें सफल व्यक्ति वहीं है, जो इस समाज द्वारा निर्धारित उपलब्धियां रखता है। दूसरो को मूर्ख बनाना आना, दूसरों का मज़ाक उड़ाना, अपना हित साधने के लिए मीठी छुरी चलाना आना, धन की नुमाईश करना आना, अपने रहन सहन में ऐश्वर्यता का झलकाना, इलैक्ट्रानिक समानों से अधिक से अधिक सुविधाएं प्राप्त करना आना आदि, आज के समाज में सफलता की निशानियां हैं। इस सामाजिक सोच के बीच यह शंका उठना स्वाभाविक है कि सफलता के उपरोक्त मापदण्ड गलत कैसे हैं, व अध्यात्मिकता अर्थात् ईश्वर के विषय की आवश्यकता क्यों है? एक साधारण सी बात है कि कोई गति ‘सफलता’ या ‘प्रगति’ नहीं कही जा सकती, यदि वो क्रमश: दुखों को कम करके शान्ति प्रदान करने वाली न हो ।अन्य शब्दों में, व्यक्ति को उतना अधिक सफल माना जाना चाहिए, जितना कम उसे दुखों की अनुभूति हो।

व्यक्ति को दुखों की अनुभूति उतनी कम होगी, जितना अधिक वह ज्ञान अर्जित करेगा। यहां, ज्ञान अर्जन का अर्थ केवल शाब्दिक ज्ञान को ग्रहण करना नहीं, बल्कि शब्दों के साथ-साथ उसके अर्थ को आत्मसात् करना है। जितना अधिक, व्यक्ति का व्यवहार दूसरों के प्रति करुणामय, दयामय और न्यायकारी होगा, उतना अधिक, उसका अपनी इन्द्रियों और अपने मन पर नियन्त्रण होगा आदि।

<< पिछला | अगला >>