संक्षेप मे कर्मफल सिद्धान्त क्या है ?

कर्मफल सिद्धान्त की बारीकियों के बारे में जानने से पहले हमें निम्नलिखित बातों का ज्ञान होना आवश्यक है –

1    फल हमेशा कर्म के पश्चात् होता है। कर्म होने से पूर्व उसके फल की प्राप्ति असम्भव है।

2    केवल वहीं सत्ता कर्मफल देने की अधिकारी है जो कर्मफल देने की उपयोगिता, कर्मों की पूर्ण जानकारी व सम्बन्धित दण्डों की जानकारी रखती हो।

3    केवल विशेष व्यक्तियों को ही मुजरिमों को दण्ड घोषित करने और उसकी अनुपालना कराने का अधिकार होता है।

4    दण्ड-प्राप्त व्यक्ति के पास दण्ड सहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता, जैसे, लोक में निचली अदालत द्वारा दण्ड पाए जाने पर मुजरिम के पास केवल देश के उच्चतम न्यायलय तक ही जाने का अधिकार होता है।

5    जो लोग घोषित दण्ड के भुगाने में सहायक होते हैं, वे पारितोषिक, न कि दण्ड के अधिकारी होते हैं, जैसे लोक में जल्लाद आदि।

6    सामान्यतः कोई भी कर्म, कर्त्ता को उसका फल दिए बिना नहीं जाता, लेकिन योगी लोग अपने कर्माशय को दग्ध कर पाते हैं। 

7    कर्त्ता के पास कर्म को करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है, परन्तु, कर्म करने के पश्चात् कर्त्ता उस कर्म का फल पाने में परतन्त्र होता है। 

8    प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है। निष्काम कर्मों का फल लौकिक नहीं होता।

कर्मफल सिद्धान्त -मनुष्य को अपने कर्म के फल के रूप में अन्य मनुष्यों से और अन्ततः ईश्वर से सुख दुख मिलते ही हैं। हमें अन्यों के कर्मों के परिणाम व प्रभाव स्वरूप भी सुख दुख प्राप्त होता है, जो हमने कमाया नहीं होता। यह सुख दुख हमारे पूर्वकृत कर्मों का ईश्वर प्रदत्त फल नहीं होता। 

 

कर्म के फलपरिणाम और प्रभाव की परिभाषा

1. कर्म का फल-कर्म पूरा हो जाने पर, कर्म के अनुरूप, कर्म के कर्त्ता को न्यायपूर्वक ईश्वर, राजा, गुरु, माता-पिता, स्वामी आदि के द्वारा सुख-दुख, या सुख-दुख को प्राप्त करने के साधन प्रदान करना कर्म का फल कहलाता है।

उदाहरण- किसी घी विक्रेता ने वनस्पति घी में पशु की चर्बी मिलाकर विक्रय किया। पकड़े जाने पर राजा द्वारा 19 वर्ष की कठोर सजा दी गई तथा 19 लाख रूपयों का दण्ड किया गया। यह कर्म का फल है।

2. कर्म का परिणाम– क्रिया करने के तत्काल पश्चात की जो प्रतिक्रिया है, उसे ‘कर्म का परिणाम’ कहते हैं। जिस व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित क्रिया होती है, कर्म का परिणाम उसी व्यक्ति या वस्तु पर होता है।

उदाहरण एक – चर्बी मिश्रित नकली घी के विकृत हो जाने पर खाने वाले सैकड़ों-हजारों व्यक्ति रोगी हो गये, अन्धे हो गए। यह घी विक्रेता के मिलावट का परिणाम है कि जिन्होंने घी खाया वे तो रोगी हुए, अन्य जिन्होंने नहीं खाया वे स्वस्थ ही रहे।

उदाहरण दो -चालक द्वारा शराब पीकर बस चलाने से दुर्घटना हुई, इसके होने पर पाँच व्यक्ति मारे गये, दस घायल हो गये,  बीस को चोटें आईं। यह सब कर्म का परिणाम है। उन सबको दुख की अनुभूति हुई। उनके अनेक कार्य और योजनाएँ असफल हुई। चिकित्सा आदि में बहुत समय और धन लगा। यह सब कर्मों का परिणाम है। चालक को शराब पीकर बस चलाने और उसे दुर्घटनाग्रस्त कर देने रूप कर्म का फल तो शासक या ईश्वर बाद में देगा।

3. कर्म का प्रभाव– किसी क्रिया, उसके परिणाम या फल को जानकर अपने पर या दूसरों पर जो मानसिक सुख-दुख, भय, चिन्ता, शोक आदि का असर होता है। उसे कर्म का प्रभाव कहते हैं। जब तक सम्बंधित व्यक्ति को क्रियादि का ज्ञान नहीं होगा तब तक उस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।

उदाहरण-वनस्पति घी में पशु की चर्बी मिलाकर गाय का घी बनाकर बेचने वाला व्यापारी जब पकड़ा जाता है, तो उसके घर वाले सगे संबंधी मित्रादि दुखी होते हैं तथा उसके शत्रु,  धार्मिक सज्जन सुखी होते हैं। बाजार में मिलने वाले गाय के घी पर आम जनता का संशय और अविश्वास हो जाता है। यह भी प्रभाव है।

कर्म के परिणाम, प्रभाव और फल को एक ही दृष्टांत में निम्न प्रकार से समझ सकते हैं-

उदाहरण—बार-बार मना करने पर भी बालक चाकू से खेल रहा था और खेलते-खेलते चाकू से बालक की अंगुली कट गयी, अंगुली कटने पर खून निकला। खून को देखकर पास में बैठा बालक रोने लगा। रोना सुनकर, थोड़ी दूर खड़ी बालक की माता आयी और चाकू से खेल रहे बालक की अंगुली कटी देखी। यह देख कर माता ने बालक को दो थप्पड़ लगाए। यहाँ, दृष्टांत में बालक की अंगुली का कटना कर्म का परिणाम है, क्योंकि, यह क्रिया के तत्काल बाद हुई प्रतिक्रिया है। पास में बैठे छोटे बालक का रोना कर्म का प्रभाव है, क्योंकि, यह अंगुली कटने व अंगुली से खून का निकलने का असर है। माता द्वारा बालक को थप्पड़ लगाना कर्म का फल है, क्योंकि क्रिया के अनुरूप आज्ञा भंग करने का कर्त्ता बालक को थप्पड़ लगाना रूप दण्ड दिया गया है। कर्म का परिणाम प्राय: तुरन्त होता है, पर प्रभाव व फल में समय लगता है। कई बार अधिक और कई बार बहुत अधिक समय भी लगता है।

आपत्ति 

-जिस राज्य में कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को बिना उसके कसूर के हानि पहुँचा सकता है, उस राज्य का राजा सशक्त और प्रभावशाली नहीं माना जाता। ईश्वर क्योंकि इस ब्रह्माण्ड का सशक्त और न्यायप्रिय राजा है, इसलिए यह मानना कि कोई भी व्यक्ति किसी अन्य को बिना उसके अर्जित किए, सुख दुख दे सकता है- दोषपूर्ण है।

समाधान-
-लोक में हम देखते हैं कि राजा ने अपने राज्य में न्याय व्यवस्था व दण्ड व्यवस्था ऐसी बनाई होती है कि उस राज्य का प्रत्येक नागरिक दण्ड के भय से किसी को भी अन्याय से हानि पहुंचाने से पहले सौ बार सोचता है। फिर भी कोई भी राज्य अपराध शून्य नहीं होता। इसी तरह ईश्वर के राज्य में भी अपने संस्कारों के वशीभूत हो के कुछ लोग अन्याय करते ही हैं, परन्तु ईश्वर की अन्याय व्यवस्था इतनी प्रबल होती है कि कोई भी अन्याय करने वाला व्यक्ति दण्ड से बच नहीं सकता, जबकि लौकिक राजा के दण्ड से अन्याय करने वाले व्यक्ति बहुत बार बच भी जाते हैं। 

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इस विषय पर कुछ विशेष बिंदु -मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में कर्म-स्वातन्त्र्य नहीं होता। हालांकि उनके कर्म भी शाबाशी और दण्ड के हकदार होते हैं, परन्तु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में कर्म-स्वातन्त्र्य के अभाव के कारण यह कह दिया जाता है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में किए गए कर्म, कर्मफल को उत्पन्न करने वाले नहीं होते। अत: हम यह भी कह सकते है कि ईश्वर केवल मनुष्य योनि में किए गए कर्मों का फल देता है। यह ईश्वर निर्धारित करता है कि मनुष्य योनि में किए कर्मों का फल जीवात्मा को कब और किस योनि में अर्थात उसी मनुष्य योनि में व अगली मनुष्य योनि में व मनुष्य के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में भुगतना है। क्योंकि, मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में किए कर्म, कर्मफल को पैदा करने वाले नहीं होते व जीवात्मा द्वारा इन योनियों में की गई प्रत्येक शारिरिक व मानसिक क्रिया उस जीवात्मा द्वारा मनुष्य योनि में किए गए कर्मों का फल होती है और उनको करने में जीवात्मा की इच्छा शामिल नहीं होती। इसलिए, इन्हें अर्थात् मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों को भोग योनियां कहा जाता है। मनुष्य योनि में जीवात्मा के पास कर्म की स्वतंत्रता के साथ-साथ कर्मफल भोगने की परतन्त्रता भी है।

 -ईश्वर, केवल, आनन्द, बुद्धि, बल, धैर्य आदि ही उपासना के समय या मुसीबतकाल में की गई याचना के समय प्रदान करता है।

 -जब तक किसी जीवात्मा द्वारा कर्म कर नही लिया जाता, तब तक उस कर्म का ईश्वर को अनुमान तो होता है, पर कोई ज्ञान नहीं होता। ऐसा जीवात्माओं के कर्म करने की स्वतंत्रता के कारण होता है। ईश्वर को कर्म का ज्ञान जीवात्मा द्वारा उस कर्म को कर चुकने के तुरन्त बाद हो जाता है। 

  -ईश्वर द्वारा आत्मरक्षा करने, नीति, चतुराई बर्तने, बलवान बनने आदि के उपदेश अन्यों के कर्म के प्रभाव व परिणाम स्वरूप जीवात्मा को अकारण दुख पहुँचने के उपाय ही हैं। 

कुछ लोगों का मानना है कि हमें सुख दुख की प्राप्ति हमारे पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप ही होती है। अन्यों के कर्मों के परिणाम व प्रभाव स्वरूप होने वाले दुखों के कारण भी हमारे पिछले कर्म ही होते हैं। क्योंकि ईश्वर, प्रत्येक जीवात्मा के संस्कारों, पूर्व कर्मों, परिस्थितयों, क्षमताओं, योग्यताओं आदि का ठीक-ठीक ज्ञान रखता है, इसलिए जीवात्मा ठीक ईश्वर के अनुमान के अनुसार कर्म करता है। जब व्यक्ति अन्यों के कृत्यों, बम आदि से मारे जाते हैं, तो बम आदि फैंकने वाले व्यक्ति को ईश्वर का नुमाइंदा कहना गलत है। ईश्वर ने तो उस व्यक्ति की अन्य जीवात्माओं को दुख पहुंचाने की क्षमता का उपयोग मात्र किया होता है और उसके ऐसा करने में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का बिलकुल भी उल्लंघन नहीं होता।

इस मान्यता के उत्तर में कहा जा सकता है कि ईश्वर, प्रत्येक जीवात्मा के संस्कारों, पूर्व कर्मों, परिस्थितयों, क्षमताओं, योग्यताओं आदि का ठीक-ठीक ज्ञान तो रखता है और वह जीवात्मा के कर्म करने की सभी संभावनाओं का भी ज्ञान रखता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि जीवात्मा उसके सामने प्रस्तुत एक निश्चित संभावना के अनुरूप ही कर्म करे। यह उसकी कर्म करने की स्वतंत्रता की परिधि में आता है कि वह कौन सी संभावना के अनुरूप कर्म करता है। कर्म करने की संभावनाओं का ज्ञान होना एक बात है और  कर्म का ज्ञान होना अन्य बात। 

जो सुख दुख किसी जीवात्मा को अन्यों के कर्मों के परिणाम व प्रभाव स्वरूप भुगतना पड़ता है, उसकी पूर्ति ईश्वर संबंधित जीवात्मा के कर्माशय में से कर देता है अर्थात उसके बराबर का  सुख-दुख उसे जितने कर्मों के फ़लस्वरुप मिलना था, उतने कर्म उसके कर्माशय में से कम कर दिए जाते हैं। 

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