योग व अष्टांग योग क्या है? इसके अंगों के क्या अर्थ हैं? इसकी क्या महत्ता है?

 

योग व अष्टांग योग

                                                                                                                               

गणित की संख्याओं को जोड़ने के लिए भी ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, परन्तु आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि में जब ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब उसका अर्थ आत्मा को परमात्मा से जोड़ना होता है। वस्तुतः परमात्मा हर स्थिति में व हर समय आत्मा को प्राप्त होता है, आवश्यकता तो बस इस तथ्य को अनुभव करने की है। जिस स्थिति में आत्मा परमात्मा को अनुभूत कर सकता है, उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए महर्षि पंतजलि ने आठ अङ्गों का विधान किया है। यही अंग योग अथवा अष्टांग योग के नाम से प्रसिद्ध है। आत्मा में बेहद बिखराव अर्थात् विक्षेप है, जिसके कारण वह परमात्मा की अनुभूति नहीं कर पाता। यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने विक्षेपों अर्थात् बिखरावों के समाप्त होने पर आत्मा स्वत: ही परमात्मा को पा लेता है। योग के आठों अंगों का ध्येय आत्मा के विक्षेपों को दूर करना ही है। परमात्मा को प्राप्त करने का अष्टांग योग से अन्य को मार्ग नहीं। अष्टांग योग के पहले दो अंग-यम और नियम हमारे सांसारिक व्यवहार में सिद्धान्तिक एकरूपता लाते हैं। अन्य छ: अंग आत्मा के अन्य विक्षेपों को दूर करते हैं। महर्षि पंतजलि द्वारा वर्णित योग के आठ अंगो के क्रम का भी अत्यन्त महत्त्व है। हर अंग आत्मा के खास तरह के विक्षेपों को दूर करता है। यह बात कि योग में आगे के अंग तभी सिद्ध किए जा सकते हैं, जब पिछले सभी अंग सिद्ध कर लिए गए हों, हर जगह लागू नहीं की जा सकती। यह बात तो सत्य है कि ध्यान में तब तक प्रगति सम्भव नहीं, जब तक यमों आदि को सिद्ध न कर लिया जाए, परन्तु ध्यान, इसलिए, न करना क्योंकि यमों की पालना पूरी तरह नहीं होती, गलत है। वस्तुतः, ध्यान करने से यमों की पलना में भी सहायता मिलती है। सभी मत वाले इस बात को मानते हैं कि असत्य, हिंसा आदि, जो कि अष्टांग योग के पहले अंग-यम के विरुध हैं- की राह पर चलने वाले श्वर को कभी नहीं पा सकते। यह इस बात की पुष्टि ही है कि श्वर को पाने का अष्टांग योग एक मात्र रास्ता है।

नीचे योग के भिन्न-भिन्न अंगो के अर्थों को बताने का प्रयास किया गया है-

योग का पहला अंग-यम

यम के पांच विभाग है –         

  1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय   4. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह

1. अहिंसा

लोक में यह मान्यता है कि किसी को कष्ट, पीड़ा व दुख देना हिंसा है। इसके विपरीत अहिंसा है। इस मान्यता को स्वीकार किया जाये, तो संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो अन्यों को कष्ट नहीं देता है। माता, पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र व सभी प्राणी एक दूसरे को कष्ट देते हैं। ईश्वर कर्मफल प्रदाता होने से संसार में सर्वाधिक कष्ट देता है। क्या इससे ईश्वर हिंसक हो जाता है? वेद में ईश्वर को पूर्ण अहिंसक स्वीकारा है। माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी आदि सुधारने के लिए हमारी त्रुटियों का दण्ड देते हुए हमें कष्ट देते हैं, क्या उनका यह कर्म हिंसा हो जायेगा?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आवश्यक है कि हम हिंसा को ठीक से परिभाषित करें। लोभ, क्रोध और मोह से प्रेरित होकर शरीर, वाणी अथवा मन से किए गए कर्म हिंसा करने वाले होते हैं। इसके विपरीत शरीर, वाणी अथवा मन से किए गए कर्म, जो लोभ, क्रोध और मोह से प्रेरित होकर नहीं किए जाते, उन्हें ‘अहिंसा’ की कोटि में रखा जाता है।
वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड अर्थात् कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार अर्थात् सुख देना भी हिंसा है।

हिंसक प्रवृति वाले मनुष्य अपनी आत्मग्लानि, असन्तोष, अतृप्ति, भय आदि को दबाने के लिए आत्मा को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। उनका यह प्रयास यह भी प्रकट करता है कि उनकी आत्मा में छुपा डर उनको बार-बार प्रेरित करता है कुछ दान-पुण्य करो, जिससे हिंसा से मिलने वाले भयंकर दण्ड में कुछ कमी हो जाए। इसी कारण वे हिंसक व्यक्ति मंदिरों में, आश्रमों में, मठों में तरह-तरह का दान करके कुछ राहत की सांस लेते हैं। पर, वे यह नहीं जान पाते हैं कि किया हुआ पाप कभी कम नहीं होता, चाहे कितना ही पुण्य करो। पुण्य का फल पुण्य व पाप का फल पाप के रूप में ही मिलता है।

वेद, वेदानुकूल ऋषियों की मान्यता यह संदेश देती है कि जितने भी गलत कार्य हैं, उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं, उन सबका मूल अहिंसा ही है।

सत्य आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता है।

यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है, पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरों पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वयं हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इस व्यक्ति का दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना, उतना ही सार्थक होगा, जितना वह स्वंय दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।

हमें विचारना चाहिये कि इतनी योनियों में जो ये अनगणित प्राणी कष्ट भोग रहे हैं, इसका कारण क्या है? तब हमें पता चलेगा कि हिंसा क्या है? और अहिंसा क्या है? यह अहिंसा है, जिसके कारण हम उत्तम योनि में आकर सुख भोग रहे हैं। यह हिंसा है, जिसके कारण अनेकों जीव निकृष्ट योनियों में पड़े दारुण दुख भोग रहे हैं।

2. सत्य

जो चीज़ जैसी है, उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो, उसे बोलना को गलत नहीं। यह ठीक नहीं। इस बात को एक उदाहरण की मदद से समझने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए कि आपने एक आदमी को कुछ व्यक्तियों से, जो उस आदमी को मारना चाहते हैं, बचके एक घर में घुसते हुए देख लिया है। अब हो सके तो आपको उस जगह से हट जाना चाहिए, ताकि वे व्यक्ति आपसे किसी तरह की पूछताछ न कर सकें। यदि आप उस जगह से नहीं हट सके और व्यक्तियों द्वारा उस आदमी के बारे में पूछने पर आपने सच बता दिया, तो वह आदमी मारा जाएगा। ऐसी अवस्था में आपका सच बोलना उस आदमी के वास्तव में अपराधी होने पर पुरस्कार का हकदार होगा अन्यथा दण्डनीय होगा। आपका झूठ बोलना शायद उस आदमी को बचा दे। हमारा झूठ किसी प्राणी को क्षणिक, एक घंटे तक, एक दिन तक, एक वर्ष तक या ज़्यादा से ज़्यादा एक जन्म तक लाभ तो पहुँचा सकता है, परन्तु उसका अन्तिम फल उस प्राणी के लिए हानिकारक ही होता है। क्योंकि, हमारा झूठ बोलना, संबंधित प्राणियों के लिए अन्तत: हानिकारक ही होता है, इसलिए, हमें सत्य ही बोलना चाहिए। परन्तु, यदि वह आदमी वास्तव में अपराधी हुआ तो आपका झूठ बोलना दो तरह से दण्डनीय होगा । आपके दण्डनीय होने का पहला कारण तो होगा आपका झूठ बोलना व दूसरा कारण होगा एक अपराधी को बचाना। ऐसी परिस्थित में निम्न व्यवहार आपको उचित होगा –

  1. यदि आपमें ब्राह्मण के गुण हैं, तो आपको उन व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को सहते हुए मौन रहना चाहिए। संक्षेप में, ब्राह्मण वह व्यक्ति होता है, जिसकी रुचि विद्या के ग्रहण करने व उसके प्रचार-प्रसार में हो।
  2. यदि आपमें क्षत्रिय के गुण हैं, तो आपको उन व्यक्तियों से भिड़ जाना चाहिए। संक्षेप में, क्षत्रिय वह व्यक्ति होता है, जो स्वभाव से अपने शारीरिक बल का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करता हो।
  3. यदि आपमें वैश्य के गुण हैं, तो आपको गिड़–गिड़ा आदि कर इस परिस्थिति से निकल जाना चाहिए। संक्षेप में, वैश्य वह व्यक्ति होता है, जो व्यापार करता है।
  4. यदि आपमें शूद्र के गुण हैं, तो चिल्ला आदि कर लोगों को इक्टठा करना चाहिए, ताकि इस परिस्थिति से निकला जा सके। संक्षेप में, शूद्र वह व्यक्ति होता है, जो शारीरिक कार्य अर्थात मज़दूरी आदि करता है।

विशेष परिस्थितियों में यदि किसी वस्तु को यज्ञ भावना से वाणी से भाषित किया जाता है तो वह अक्षरक्ष: सत्य न होने पर भी सत्य भाषण ही है। विशेष परिस्थितियों के होने का निर्णय प्रत्येक का आत्मा करता है। यज्ञ भावना क्या है? संक्षेप में कहा जाए, तो जो कर्म अन्याय के विरोध में सृष्टि के कल्याणार्थ किए जाते हैं, वे कर्म यज्ञ भावना से ओत-प्रोत माने जाते हैं।

कहा गया है – सत्य बोलो, प्रिय बोलो। ऐसा बहुत कम होता है कि को विषय सत्य भी हो और अप्रिय भी न हो। ऐसे समय में स्वयं का आत्मा ही निर्णायक होता है कि अप्रिय सत्य को बोला जाए या ना। हां, यदि किसी को प्रिय रूप में बोला सत्य  भी कठोर लगता है, तो यह उसका दोष है। कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप झूठ भी बोला जा सकता है परन्तु, यह नितान्त आवश्यक है कि झूठ बोलने वाले की मनोवृति सात्विक हो। इस बात का कि अपवाद रूप में किसी की भला के लिए झूठ बोल लेना चाहिए, सहारा लेकर हम साधारण परिस्थितियों में भी अपने आप को झूठ बोलने से नहीं रोक पाते। साधारण परिस्थितियों में हमें सत्य ही बोलना चाहिए। राष्ट्र हित व विश्व हित के मामलों को ही केवल असाधारण परिस्थितियां माना जाना चाहिए।

सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ, आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी। गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान नही हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है, उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में फर्क होना स्वभाविक है। दूसरा सत्य वह होता है, जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश अन्तर नहीं आता। श्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी नहीं बदलता, उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए। जो चीज़ जैसी है, उसे वैसी ही जानने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने निम्नलिखित मापदंड सुझाए हैं –

  1. वह वस्तु अथवा घटना, श्वर के गुणों के अनुकूल होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, क्योंकि, किसी व्यक्ति को बगैर उसके अन्याय के दोषी होने के मार दिया जाना श्वर के गुण न्यायकारिता व दयालुता के विरुद्ध है, इसलिए, इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।
  2. किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर जो निर्णय प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा हो, उसे स्वीकारें।
  3. वह वस्तु अथवा घटना, सृष्टि नियमों के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, यह मानना कि किसी शरीरधारी का शरीर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, सृष्टि नियमों के विरुद्ध होने से असत्य है।
  4. हमें आप्त पुरुषों के वचनों को प्रमाण के रूप में मानते हुए सत्य का निर्धारण करना चाहिए। आप्त पुरुष वे हैं, जिनका व्यवहार वेदोक्त होता है।
  5. जो वस्तु व घटना, हमारी आत्मा की प्रवृति के अनुरूप हो, वो सत्य और जो आत्मा की प्रवृति के विरुद्ध हो, वो असत्य। आत्मा की प्रवृति है कि उसे सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता हे। जो वस्तु हमे॑ प्रिय व अप्रिय लगती है, उसे अन्य आत्माओं के लिए भी वैसे ही जानें। जैसे अन्याय हमें अप्रिय लगता है।

कुछेक विद्वानों का मानना है कि यमों में उल्लेखित सत्य का अर्थ यह है कि जैसा व्यक्ति के ज्ञान में हो, वैसा ही कहना। यदि व्यक्ति के ज्ञान में यथार्थ से भिन्न कोई बात है, तो उसको कहना भी सत्य ही कहलाएगा। यह ओर बात है कि जब तक वह यथार्थ को नहीं जान लेता, तब तक उसकी योग में प्रगति सम्भव नहीं। इन विद्वानों के अनुसार यमों में उल्लेखित सत्य का अर्थ यह ही है कि व्यक्ति अपने व्यवहार में अपनी आत्मा के प्रति ईमानदार रहे और अपने व्यवहार में इस ईमानदारी को लाने के पश्चात योग-पथ पर आगे बढ़ने के लिए वस्तु के वास्तविक स्वरूप को भी जाने। 

परन्तु, अधिकतर विद्वानों का मानना है कि किसी वस्तु आदि के वास्तविक स्वरूप को अपनी आत्मा के अनुसार कहना ही सत्य कहलाता है और वस्तु के वास्तविक स्वरूप को बिना प्रमाणों से परीक्षा करने के नहीं जाना जा सकता। 

थोड़ा इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखा जाये। क्या किसी ने झूठ बोलकर अपने जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त किया है? यदि ऐसा नहीं हुआ है, तो आज और कल भी नहीं होगा।

हमारा सत्य को अपने जीवन में धारण न कर पाने का बहुत बड़ा कारण यह है कि हमने अपने जीवन का लक्ष्य जड़-पदार्थों को प्राप्त करना बनाया है। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति को वास्तविक लाभ समझ कर भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने पर भी आत्मतृप्ति नहीं मिल रही है, यह बात भौतिक पदार्थों के स्वामी अंदर से स्वीकार करते हैं। हमें उनके अनुभव का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।

वर्त्तमान में सत्याचरण करने से हानि अधिक दिखा देती है। इसके पीछे कारण है-भौतिक पदार्थों की हानि को अपनी आत्मा की हानि समझना।

झूठ बोलने वाला कभी भी निडर नहीं हो सकता। हम डरते हुए कभी भी एकाग्र नहीं हो सकते। अत: झूठ बोलने या मिथ्या आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण एकाग्र नहीं बन सकता। हम पूर्ण एकाग्रता के बिना पूर्ण बुद्धिमान नहीं बन सकते।

सत्य का पालन अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। झूठ बोलने से भी हिंसा होती है। कैसे? हिंसा का अर्थ है-अन्याय पूर्वक पीड़ा, दुख, कष्ट देना। जब बालक माँ से झूठ बोलता है, तो माँ को इससे अतीव कष्ट होता है। आप दुकानदार हैं, तो ग्राहक को झूठ बोलकर पीड़ा पहुँचा रहे हो। आप नौकरी के प्रत्याशी हैं, आपने झूठ बोल कर नौकरी ली, तो जिसे नौकरी मिलनी थी, आपके कारण वह वंचित हो गया है, उसे वंचित होने पर दुख मिला, यह हिंसा है। जहाँ भी हम झूठ बोलतें हैं, निश्चित रूप से हम वहाँ पर हिंसा ही कर रहे हैं। वहाँ, अन्याय पूर्वक दूसरों को दुख देते हैं। जिसे हम हिंसा द्वारा पीड़ा पहुँचा रहे हैं, उसका फल हमें निश्चित रूप से मिलने वाला है। इस से हम छूट नहीं सकते। इसीलिये ऋषि कहते हैं कि सत्य ऐसी एक शक्ति है जिसे अपनाने पर मनुष्य को आगे होने वाले पापों से छूटने की शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और को मार्ग नहीं है।

ऐसा को व्यक्ति न अतीत में था, न ही वर्त्तमान में है और न ही संभवत: भविष्य में होगा जिसे सत्य में अश्रद्धा हो व असत्य में श्रद्धा हो। ऐसा इसलिये है, क्योंकि, परमेश्वर ने प्रारम्भ से ही मनुष्य के अन्त:करण में असत्य के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर दी है।

जब व्यक्ति अपने आत्मा को मार कर को बात नहीं कहता वरन्, प्रसन्नतापूर्वक एवं आत्म-विश्वास के साथ कहता है, तब वह सत्य-बोल बोलता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति का आत्मा मृत प्राय: अर्थात अंधकार में डूबा होता है।

सत्य के धारण करने से भले ही कुछ भी चला जाये, परन्तु आत्मा का कल्याण इसी में है। जिस माँ के लिए झूठ बोलते हैं, वह तो एक दिन जायेगी ही। पिछले जन्मों में न जाने कितनी माताओं, पिताओं, पुत्रों, पत्नियों, बेटियों तथा अन्यान्य परिवार जनों को छोड़कर हम इस जन्म में वर्त्तमान हैं। जिनके लिए झूठ बोला था, वे सब कहाँ गये? जिनके लिए अब झूठ बोल रहे हैं, इन्हें भी तो छोड़ना पड़ेगा। साथ इनमें से को नहीं देगा। साथ रहेगा वह पाप, जो इन परिजनों के लिए झूठ बोलकर कमाया है। जब सभी बिछड़ते हैं, तो इनसे ममता जोड़ कर क्यों झूठ बोलते हो? इन्हें भी मन से त्याग दो। आत्मा तो अकेला था, अकेला है और आगे भी अकेला ही रहेगा।

ऋषि कहते हैं कि तुम्हारा कहना कि असत्य के बिना काम नहीं चलता, गलत है। जिस सत्य को झूठ बनाकर प्रस्तुत कर रहे हो, भले आदमी! उस सत्य को सत्य ही के रूप में प्रयोग करके तो देखो, एक बार में ही इसकी महत्ता का पता चल जायेगा। आगे कहते हैं कि असत्य को हमें किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करना है। किसी के लिए भी असत्य नहीं बोलना है, मर जाओ, सब कुछ समाप्त हो जाये, इस सर्वप्रिय शरीर को ही समाप्त करना पड़े, किन्तु सत्य को न छोड़ें।

ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए-इस झूठ से हम किसका कल्याण करना चाहते हैं? किसको सुख देना चाहते हैं? जिस झूठ से आज तक किसी का कल्याण नहीं हुआ है, उसी झूठ से हम अपना कल्याण करना चाहते हैं।

3. अस्तेय

‘अस्तेय’ का शाब्दिक अर्थ है, चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को, अन्याय से  पाने की इच्छा करना मन द्वारा की ग चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। किसी की कार को देखकर अन्याय से  उसे पाने की इच्छा करना, किसी सुन्दर फूल को देखकर अन्याय से  उसे पाने की चाह करना आदि चोरी ही तो है।

जैसे कपड़ा बेचने वाला, ग्राहक के सामने ही उसे धोखा देता है। ग्राहक पांच मीटर कपड़े का मूल्य चुकाकर उतने कपड़े का स्वामी बन जाता है, किन्तु दुकानदार माप में धोखा देकर उसे पांच मीटर से कम कपड़ा देता है। वह उसी के सामने उसके सामान का चालाकी से हरण कर लेता है।

मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं, हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम कितना अस्तेय का पालन करते हैं।

4.ब्रह्मचर्य

शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।

आधुनिक ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले अनेकों की धारणा है कि वीर्य की रक्षा करना पागलपन है। अत: वे अपने शरीर को वीर्यहीन बना लेते हैं। शरीर को नाजुक, कमज़ोर, रोग ग्रस्त बना लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को घटाते हैं।

इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं, उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरुषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। मिथ्या-ज्ञान का नाश करते हुए शुद्ध-पवित्र-सूक्ष्म विवेक को प्राप्त करने से वीर्य रक्षा में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य के विपरीत है व्याभिचार। व्याभिचार से भी वैसे ही हिंसा होती है, जैसे झूठ से व चोरी से होती है।

जो सुबह से लेकर रात तक बड़े-बड़े व अति हानिकारक झूठ बोल के आता है, वह भी एक बार व्याभिचार करके आने वाले को पता नहीं कैसे देखता है? जैसे, झूठ के स्तर होते हैं, वैसे ही, व्याभिचार के भी स्तर होते हैं, एक स्तर का झूठ जो फल देता है, उसी स्तर का व्याभिचार भी उतना फल देने वाला होता है। यदि को व्याभिचार करता है, तो वह निन्दनीय है, इसमें को दो राय नहीं है, लेकिन उससे अच्छा झूठ बोलने वाला नहीं। वह यम के एक विषय में गिरा हुआ है, यह यम के दूसरे विषय में गिरा हुआ है। उसके गिरने और इसके गिरने में को अन्तर नहीं है, दोनों गिरे हुए हैं। सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह योग के प्रथम अंग-यम के विभाग हैं और एक विभाग का उतना ही महत्त्व है, जितना दूसरे विभाग का।

जैसे हम झूठ इसलिए बोलते हैं, क्योंकि सत्य की महिमा हमने नहीं जानी। हम चोरी इसलिए करते हैं, क्योंकि अस्तेय की महिमा हमने नहीं जानी। ठीक उसी प्रकार से संयम इसलिए नहीं रखते हैं, क्योंकि हमने ब्रह्मचर्य की महिमा नहीं जानी। एक बार हमको ये बोध हो जाये कि ब्रह्मचर्य की क्या महिमा है तो, व्याभिचार छोड़कर ब्रह्मचर्य पालन में लग जायेंगे।

ब्रह्मचर्य की कितनी महिमा है। आज इस संसार में मृत्यु से कौन नहीं डरता? ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यरूपी तपस्या से ऐसे गुणों को अपने अन्दर धारण करता है, कि उससे वह मृत्यु को यूँ उठाकर के फेंक देता है जैसे तिनके को उठाकर के फैंकते हैं।

आचार्य कहते हैं-ये जो वीर्य व रज हैं, ये आहार का परम धाम हैं, उत्कृष्ट सार हैं, यदि तू वास्तव में अमृत पाना चाहता है तो इनकी रक्षा किया कर। यदि असंयम से तूने इनका क्षय कर लिया, तो देख लेना समझ लेना तू, दुनिया भर के रोग आ जायेंगे तुझे।

शास्त्रों की सूक्ष्म-बातें सूक्ष्म-बुद्धि से ही समझी जा सकती है। बुद्धि सूक्ष्म तब होती है, जब हमारे शरीर में भोजन का सार प्रचुरता से होगा। भोजन का सार सूक्ष्म तत्त्व है ‘शुक्र’। शुक्र सुरक्षित रहेगा ब्रह्मचर्य पालन से।

बहुत से लोग क्षण भर में श्वर साक्षात्कार कर लेना चाहते हैं। उनका आशय यह होता है कि उन्हें कुछ करना-धरना न पड़े और श्वर का साक्षात्कार हो जाए। उन्हें इस बात के महत्त्व का ज्ञान ही नहीं है। जिस बात के लिए ब्रह्मचारी ने अपना सर्वस्व झौंककर, रात-दिन एक करके अपना जीवन ही न्यौछावर कर दिया और अभी तक अपने प्रमाद-आलस्य को, अपनी न्यूनताओं को पूरी तरह दूर नहीं कर पाया और वे उसी ब्रह्म-तत्व को क्षण मात्र में प्राप्त करना चाहते हैं।                                                     

5. अपरिग्रह

मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं।

अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नहीं है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र आदि एक जैसे व समान मात्रा में हों।

हम जितने अधिक साधनों को बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक हिंसा के भागी बनते जायेंगे। उदाहरणार्थ, कपास की खेती से वस्त्र निर्माण होने तक की प्रक्रिया में अनेक जीव पीड़ित होते व मरते हैं। परन्तु, हमें आवश्यकता के अनुसार कुछ न कुछ साधन तो चाहिए। हम मात्र उतने ही साधनों का प्रयोग करें। ऐसा न हो कि हमारे कारण दूसरे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित रह जायें।

हमारी अधिक संग्रह करने की भावना से अनावश्यक उत्पादन बढ़ता जा रहा है। जिससे पृथ्वी, जल आदि पन्च भूतों की हाऩि होती जा रही है। ऐेसा न हो कि हम क्षणिक सुख के लिए विपुल मात्रा में हिंसा कर बैठें।

अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरुद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं। यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये, तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।

ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए–आखिर इतना संग्रह किसके लिए करता हूँ? क्यों करता हूँ व कब तक करता रहूँगा? मैं कहाँ था? कब आया, क्यों आया? पहले का संग्रह कहाँ है? इस प्रकार के संग्रह से क्या होगा? कब तक संग्रह करूँ? इस प्रकार आत्मा का बोध होता है।

योग का दूसरा अंग – नियम

यम की तरह ‘नियम’ भी दुखों को छुड़ाने वाला है।

यम व नियम में अन्तर

यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दुखों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं।

नियम के पाँच विभाग हैं:-

  1. शौच, 2. संतोष, 3. तप, 4. स्वाध्याय, 5. श्वर-प्रणिधान

1. शौच

शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या, ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है, परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन- समय, धन आदि शरीर की शुद्धि  में ही लगाए जा रहें हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी ग है। इसलिए, यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है, उसका आहार, ज्ञान व कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का बोध नहीं होगा।

आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है।

2. संतोष

अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है, यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है, तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता। सन्तोष की भावना को हमें केवल प्राकृतिक पदार्थों तक ही सिमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे हमें अपने सम्बन्धों पर भी घटाना चाहिए। 

जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है, उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष नहीं। अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरुषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरुषार्थ करके संतोष कर लेता है, इसे तुष्टि-दोष कहा जाता है। यह आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है।

संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति श्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।

3. तप

जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दुख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्दों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।

आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन, पंखा, कूलर, ए.सी. कमरे आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब को मनोरम दृष्य सामने आता है, तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।

अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह श्वर का दर्शन नहीं कर सकता। परन्तु, इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।

4. स्वाध्याय

भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से को भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

वेदों में दोनों- भौतिक विद्या व अध्यात्मिक विद्या हैं। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों जैसे कि व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविद्या से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।

5. ईश्वर – प्रणिधान

श्वर-प्रणिधान का अर्थ है – समर्पण करना।

लोक में हम माता – पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि कहें, वैसा ही करना। जिसके प्रति आप समर्पित हो रहे हैं, उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण है। इसलिए, श्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम श्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। श्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा, तो हम हर वक्त श्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। परन्तु, श्वरीय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए। फल को न चाहने का अर्थ क्या है? जड़ पदार्थ आदि, जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है, उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य किया जाए, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो, जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है, श्वरीय आनन्द को पाने से। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके, श्वरीय आनन्द को प्राप्त करने की इच्छा से करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।

इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।

भक्ति=समर्पण=आज्ञा पालन

श्वर-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ- बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि श्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है, तो उसको डर लगता है। यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। श्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे श्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा।

जैसे, उदाहरण के लिए, एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है, परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको को चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दुख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कभी माना ही नहीं था।

अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है, एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि जैसा, वो हमको कहेगा हम वैसा, अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।

दान देना पड़ेगा क्योंकि, उसकी आज्ञा है। जितना खाने के लिए कहता है उतना खाओ, जिसे न खाने के लिए कहता है, उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने किया- ‘भक्ति-विशेष’ अर्थात श्वर की आज्ञा-पालन।

जब हम श्वर-समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे, तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।

योग का तीसरा अंग – आसन

आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सके, उसे आसन कहा गया है। शरीर की स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों की चर्चा की ग है। चलते-फिरते, उछलते-कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है। मन को अगतिशील श्वर में लगाना तभी सम्भव है, जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है।

योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् श्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। श्वर की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे श्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। समाधि व श्वर-प्रणिधान अलग-अलग हैं, को यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से श्वर में लगाना होता है और इसके लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।

योग का चौथा अंग – प्राणायाम

प्राणायाम से ज्ञान का आवरण, जो अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं, बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं। ये क्रियाएं, हमें अनेकों रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है, परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है। प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है। प्राणायाम चार ही हैं, जो, पतंजलि ऋषि ने अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं।

पहला प्राणायाम– फेफड़ों में स्थित प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही यथासामर्थ्य रोकना और घबराहट होने पर बाहर के प्राण अर्थात वायु को धीरे-धीरे अन्दर ले लेना।

दूसरा प्राणायाम– बाहर के प्राण को अन्दर अर्थात् फेफड़ों में लेकर अन्दर ही रोके रखना और घबराहट होने पर रोके हुए प्राण को धीरे-धीरे बाहर निकाल देना।

तीसरा प्राणायाम– प्राण को जहां का तहां अर्थात् अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर रोक देना और घबराहट होने पर प्राणों को सामान्य चलने देना।

चौथा प्राणायाम– यह प्राणायाम पहले व दूसरे प्राणायाम को जोड़ करके किया जाता है। पहले तीनों प्राणायामों में वर्षों के अभ्यास के पश्चात, कुशलता प्राप्त करके ही, इस प्राणायाम को किया जाता है।

प्राणों को अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगाकर, विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें। प्राणों के रोके रखने को घबराहट होने से पहले अन्दर ले लेने अथवा बाहर छोड़ देने से प्राणायाम का वास्तविक लाभ नहीं मिलता।

प्राणायाम हमारे शरीर के सभी SYSTEMS को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है। प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है। यदि मात्र प्राणायाम-काल को दृष्टिगत रखें, तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।

प्राणायाम को प्रतिदिन प्रयाप्त समय देना चाहिए। कुछ विद्वान मानते हैं कि हमें एक दिन में इक्कीस प्राणायाम से अधिक नहीं करने चाहिए। परन्तु, अन्य ऐसी बातों को अनावश्यक मानते हैं। प्राणायाम करते समय प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हों। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो।

प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। प्राणायाम के काल में निरन्तर, मन्त्र ओम् भू: अर्थात् श्वर प्राणाधार है, ओम् भूव: अर्थात् श्वर दूखों को हरने वाला है, ओम् स्व: अर्थात् श्वर सुख देने वाला है ओम् मह: अर्थात् श्वर महान है, ओम् जन: अर्थात् श्वर सृष्टि कर्त्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।, ओम् तप: अर्थात् श्वर दुष्टों को दुख देने वाला है, ओम् सत्यम् अर्थात् श्वर अविनाशी सत्य है, का अर्थ सहित जप करें।

प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोककर आत्मा व परमात्मा में लगाना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रखकर प्राणायाम करें।

प्राणों को रोकने के अपने सामर्थ्य को धीरे-धीरे धैर्य पूर्वक बढ़ाना चाहिए। बहुत लोग बहुत-बहुत देर तक सांस रोके रखते हैं, सरिया आदि मोड़ते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कि उन सबका अज्ञान नष्ट होकर उन्हें विवेक-वैराग्य हो जाता हो। यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया, परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया, तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता।

प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें? पैसे में मन को लगायें, तो पैसा मिलता है। परमात्मा में लगाने से श्वर साक्षात्कार हो जाता है।

हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है, इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।

जो, यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो, इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रुचि या श्रद्धा नहीं है। टी.वी. का मनपसन्द सीरियल हम एक-दो घण्टे तक मनोयोग पूर्वक कैसे देख पाते हैं, यदि मन हमारे वश में न होता! इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा मन पर नियन्त्रण का अभ्यास तो परिपक्व है, किन्तु यह केवल सांसारिक विषयों में ही है। अत: हमें मनोनियन्त्रण की शक्ति को केवल परिवर्तित विषय पर लगाने की आवश्यकता है अर्थात इसका केन्द्र आत्मा और परमात्मा को ही बनाना है।

महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दुखों से रक्षा करते हैं।

योग का पांचवा अंग – प्रत्याहार

आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को संसार के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक अर्थात् बांध देने को प्रत्याहार कहते हैं।

प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है- संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है, कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है, परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया, तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग ग। इसी भांति, अगर को व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है, तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय- देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श करना आदि में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर, एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिना है तो, पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।

इन्द्रियों को रोकना हो, तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो, तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। वैसे, हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा को व्यक्ति नहीं है, जो, तपस्या करता ही न हो। पैसे की भूख है, तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब से होश में हैं, तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं। श्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब श्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है, तो, इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम।

को चेतन अन्य चेतन को नचा दे, तो समझ में आता है, जैसे- मदारी भालू, बन्दर आदि को नचाता है, लेकिन, को जड़, किसी चेतन को नचा दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन, हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि, यह जड़ मन हमें नचा रहा है।

कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं, तो, दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें? इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है, जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है, तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे।

प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णतया परमात्मा में नहीं लगा सकते।

योग का छठा अंग – धारणा

अपने मन को अपनी इच्छा से, अपने ही शरीर के अन्दर, किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।

वैसे तो, शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं, परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच, जो गड्डा होता है, उससे है।

जहां धारणा की जाती है, वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है, जहां, आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।

निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –

  1. मन जड़ है, को भूले रहना
  2. भोजन में सात्विकता की कमी
  3. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
  4. श्वर कण – कण में व्याप्त है, को भूले रहना
  5. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना
  6. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना

बहुत से योग-साधक बिना धारणा बनाए, ध्यान करते रहते हैं। जिससे, मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।

जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगों को सिद्ध किया होता है, उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह श्वर पर निशाना लगाने अर्थात् श्वर को पाने के लिए हमारे मन का एक स्थान पर टिका होना अति आवश्यक है।

योग का सातवां अंग – ध्यान

प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य- ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा पाते हैं।

ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय, सुबह चार बजे के आस-पास है। ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थिरता व सुख पूर्वक बैठकर, आँखे कोमलता से बंद कर, दसों यम-नियमों का चिन्तन करते हुए यह अवलोकन करें कि आप पिछले दिन अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कितना चला पाएं हैं। तत्पश्चात मन को निर्मल करने के लिए प्राणायाम करें। उसके पश्चात, अपने मन को शरीर के अन्दर, किसी स्थान पर टिका कर, स्वयं के अनश्वर, चेतन स्वरूप होने व अपने आप को इस नश्वर शरीर से भिन्न होने पर विचार करें। श्वर की सर्वत्र विद्यमानता को महसूस करते हुए अनुभव करें कि आप प्रभु में हैं और प्रभु आप में हैं। प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए यह महसूस करें कि उसके आनन्द, अभयता आदि गुण आपमें आ रहे हैं।

भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए, तो, तत्काल मन को पुन:-पुन:, धारणा स्थल पर टिकाकर, प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।

जैसे पिता अपने पुत्र की सभी कालों में व सभी स्थितियों में रक्षा व पालन करता है, उसी तरह ईश्वर भी सतत हमारी रक्षा व पालन कर रहा है। हमारे जीवन के आधार कहे जाने वाले प्राणों को देने वाला भी वह ईश्वर ही है। उसकी रक्षा और पालना के बिना हम जीवित नहीं रह सकते। प्रारम्भिक अवस्था में, ध्यान के समय ईश्वर के इन्हीं दो गुणों का चिन्तन करना पर्याप्त है। ध्यान में हमने इसी बात पर चिन्तन करना है कि हम कैसे ईश्वर द्वारा रक्षित व पालित होते हैं?

जिस चीज में हम अपना लाभ देखते है, उस चीज में हमारा मन आसानी से लग जाता है। यदि ध्यान की प्रक्रिया में हमारा मन नहीं लग रहा तो उसके लाभों का हमें ओर गहराई से चिंतन करना चाहिए।  

ध्यान का अर्थ कुछ भी न विचारना, विचार-शून्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे अर्थात् टिन में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है, उसी प्रकार प्रभु के एक गुण- आनन्द, ज्ञान आदि को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए। जैसे, सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही, किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न को विषय नहीं हो।

ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।

यद्यपि ध्यान का सर्वोत्तम समय सुबह का है, फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय कितनी ही बार किया जा सकता है, परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें, यदि, वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो। 

योग का आठवां अंग – समाधि

ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष अर्थात् दर्शन होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं।

जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में, जीवात्मा में, श्वर के सभी गुण प्रतिबिम्बित होने लगते हैं।

जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।

उपसंहार-अब एक उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उस श्वर को प्राप्त करने में योगविद्या की क्या महानता है। आत्मा में ज्ञान की क्षमता को असीम मानते हुए (श्वर के मुकाबले आत्मा में ज्ञान की क्षमता सीमित ही है), एक कुषाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति 100 वर्षों में अध्ययन आदि के माध्यम से केवल कुछ विषयों में ही परांगत हो सकता है, जबकि, इस सृष्टि में अनगणित और अन्तहीन विषय हैं। सब विषयों को पूर्णतया जानना जीवात्मा के लिए वैसे ही असम्भव है, जैसे, समुद्र का सारा पानी एक कुंए में नहीं समा सकता। परन्तु, कुंआ समुद्र के पानी से लबालब भरा तो जा सकता है। इसी तरह समाधि के माध्यम से आत्मा को ज्ञान से लबालब भर दिया जाता है। जिस भी विषय के लिए समाधि लगा जाती है। उस विषय का ज्ञान आत्मा में आ जाता है। इस तरह समाधि के माध्यम से आत्मा अनगणित विषयों में परांगत हो सकता है।

यह कथन कि सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं, का तात्पर्य यह है कि ज्ञान-स्वरूप परमात्मा हमारी आत्मा में पूर्णतया व्याप्त है, परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए, जो हमें योग्य गुरुओं द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।

 -अधिकांश विचार स्वामी विश्वङ परिव्राजक जी के हैं।

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