धन का क्या महत्त्व है व इसका क्या क्या उपयेाग है?

 

धन की आवश्यकता हमारे सभी कार्यों के मूल में है। धन का महत्त्व, इसी बात से सिद्ध होता है कि धन के बगैर हम तकरीबन, सभी धार्मिक कार्यों को नहीं कर सकते। केवल, मीठी वाणी बोलने आदि के कार्यों के द्वारा हम बिना धन के व्यय के दूसरों को सुख पहुँचा सकते हैं। हमारी संस्कृति में धन के अभाव को बहुत बड़ा अभिशाप माना जाता है। जहाँ यह सत्य है कि तकरीबन, सभी दूसरों की भलाई के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता होती है, वहां यह भी सत्य है कि धन की, बुराईयों को अपनी ओर खींचने की क्षमता अकथनीय है। इस दुविधा को दूर करने के लिए हमारी संस्कृति ने एक मार्ग सुझाया है। यह मार्ग है, ‘त्याग’ का। अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, दूसरों की भलाई के लिए व ध्यान के लिए धन की सहायता से उचित साधन जुटाये जाएं, परन्तु, उनका उपभोग ‘त्याग की भावना से किया जाए। त्याग की भावना से उपभोग करने का तात्पर्य क्या है? किसी साधन का उपभोग करते समय, जिस लक्ष्य के लिए उस साधन को जुटाया गया है, उस उद्देश्य को, हमेशा, सामने रखा जाए। उद्देश्य की पूर्ति हो जाने पर, उस साधन से किसी तरह का मोह नहीं रखना चाहिए। त्याग की भावना से उपभोग करने को, एक उदाहरण से, ओर अच्छी तरह समझा जा सकता है। अगर, हमारा ध्येय दिल्ली जाना है, तो दिल्ली लेके जाने वाली ट्रेन, सीट आदि से हमारा मोह, तभी तक होता है, जब तक हम दिल्ली नहीं पहुँच जाते। रास्ते में यदि वो ट्रेन खराब हो जाए और हमें दिल्ली जाने वाली उसी किस्म की अन्य ट्रेन में बैठने को कहा जाए, तो हमें उसमें कोई आपत्ति भी नहीं होती। इस सन्दर्भ में योग के पहले अंग यम के पांचवे विभाग अपरिग्रह का ज्ञान आपेक्षित है।

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