गीता का सार क्या है?

 

आज गीता सार के नाम से श्रीमदभगवद् गीता की शिक्षाओं को बेहद गलत ढंग से प्रसारित किया जा रहा है। गीतासार की पहली पंक्ति में कहा गया है– ‘जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा अच्छा होगा। तुम क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो?’ क्या यह कहा जा सकता है कि जो कुछ पांचों पांडवों, द्रोपदी आदि के साथ हुआ, वह अच्छा हुआ। युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के मोह ग्रसित हो, युद्ध न करने के विचार को अच्छा होना कह, प्रचलित गीतासार में गीता के मूलभूत सिद्धान्तों का उपहास ही उड़ाया  है। कुछ लोगों का इन शब्दों- जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा अच्छा होगा को सही साबित करना जीव की कर्म स्वतंत्रता को न मानना है, जबकि गीता में साफ लिखा है कि केवल कर्म करने का अधिकार ही कर्मवीर को है न कि कर्मफल पाने का। अब, गीता की मुख्य शिक्षाओं को लिखा जाता है –

– जिस प्राणी का जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अनिवार्य है और मृतक का पुर्नजन्म भी निश्चित है। प्रकृति के इस अटल नियम को जान के किसी की मृत्यु पर शोक करना उचित नहीं।

– व्यक्ति मात्र शरीर नहीं, आत्मा है। शरीर तो नाशवान एवं क्षणभंगुर है। आत्मा अजर, अमर, शाश्वत और नित्य है। मरने के पश्चात जन्म लेना ठीक वैसा ही है, जैसे पुराने वस्त्रों को त्याग कर, नये वस्त्रों को धारण करना।

– आत्मा को कभी कोई सुख-दुख, सर्दी-गर्मी नहीं सताते। ये अनुभव तो आत्मा को, शरीर के साथ संयोग होने से ही होते हैं। इसलिए धीर मनुष्य को ये कभी विचलित नहीं करते।

– सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, इन सब को समान समझ कर व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।

– निष्काम भाव से कर्म करना तथा फल में समबुद्धि रखना ही वास्तविक कर्मयोग है।

– सारी लौकिक इच्छाओं का परित्याग करने पर ही व्यक्ति की बुद्धि स्थिर होती है। स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति दुखों से घबराता नहीं है।

– ज्ञानी को सुख-दुख अनुभव नहीं होता। सुख व दुख के भाव तो केवल आसक्ति से उत्पन्न होते हैं।

– परमात्मा संसार के कण-कण में व्याप्त हैं। वो ही संसार की प्रत्येक वस्तु का आधार है। जिन्होंने यह अनुभव कर लिया है कि सब स्थानों पर वहीं ब्रह्म व्याप्त है, उन्हें ही मोक्ष प्राप्त होता है।

– निष्काम कर्मयोग हेतु साम्य बुद्धि प्राप्त करने के साधन हैं – अभ्यास, ज्ञान और ध्यान।

– प्रभु शरण से पाप-फलों से मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि, प्रभु शरण से पाप-फलों को सहन करने की शक्ति मिलती है।

– इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं है।

– कर्मों के त्याग के बजाए व्यक्ति को कर्मफलाशा में आसक्त न होकर कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए।

– यदि अज्ञान और अविवेक के कारण कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के द्वारा समाज सेवा नहीं करता, तो उसका यह त्याग मूढ़ अर्थात तामसिक है।

– इन्द्रियों के विषयों के साथ संयोग से जो सुख प्राप्त होता है, वो आरम्भ में अमृत के समान प्रतीत होता है, किन्तु अन्त में परिणाम विष सा रहता है।

श्री कृष्ण जैसा महान ब्रह्म ज्ञानी व्यक्ति, यदि ब्रह्म का वर्णन उत्तम पुरुष (मैं आदि) में करे तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं। इससे अवतारवाद बिलकुल सिद्ध नहीं होता। साकार परमात्मा की उपासना गीता में कहीं प्रतिपादित नहीं हुई है।

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