किसी विषय की सत्यता व असत्यता का अर्थ क्या है?

 

जो चीज़ जैसी है, उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो उसे बोलना कोई गलत नहीं। यह ठीक नहीं। इस बात को एक उदाहरण की मदद से समझाने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए, कि आपने एक आदमी को कुछ व्यक्तियों से, जो उस आदमी को मारना चाहते हैं, बच के एक घर में घुसते हुए देख लिया है। अब, हो सके तो आपको उस जगह से हट जाना चाहिए, ताकि, वे व्यक्ति आपसे किसी तरह की पूछताछ न कर सकें। यदि, आप उस जगह से नहीं हट सके और व्यक्तियों द्वारा उस आदमी के बारे में पूछने पर आपने सच बता दिया तो वह आदमी मारा जाएगा। ऐसी अवस्था में आपका सच बोलना, उस आदमी के वास्तव में अपराधी होने पर पुरस्कार का हकदार होगा अन्यथा दण्डनीय होगा। आपका झूठ बोलना, शायद उस आदमी को बचा दे। हमारा झूठ किसी प्राणी को क्षणिक, एक घंटे तक, एक दिन तक, एक वर्ष तक या ज़्यादा से ज़्यादा एक जन्म तक लाभ तो पहुँचा सकता है, परन्तु, उसका अन्तिम फल उस प्राणी के लिए हानिकारक ही होता है। क्योंकि, हमारा झूठ बोलना, संबन्धित प्राणियों के लिए अन्तत: हानिकारक ही होता है, इसलिए, हमें सत्य ही बोलना चाहिए। परन्तु, यदि वह आदमी वास्तव में अपराधी हुआ तो आपका झूठ बोलना दो तरह से दण्डनीय होगा। आपके दण्डनीय होने का पहला कारण तो होगा आपका झूठ बोलना व दूसरा कारण होगा एक अपराधी को बचाना। ऐसी परिस्थिति में निम्न व्यवहार आपको उचित होगा –

1. यदि आप में ब्राह्मण के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को सहते हुए मौन रहना चाहिए। संक्षेप में ब्राह्मण वह व्यक्ति होता है, जिसकी रुचि विद्या के ग्रहण करने व उसके प्रचार- प्रसार में हो। 

2. यदि आपमें क्षत्रिय के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों से भिड़ जाना चाहिए। संक्षेप में क्षत्रिय वह व्यक्ति होता है, जो स्वभाव से अपने शारीरिक बल का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करता हो।

3. यदि आपमें वैश्य के गुण हैं तो आपको गिड़–गिड़ा आदि कर इस परिस्थिति से निकल जाना चाहिए। संक्षेप में वैश्य वह व्यक्ति होता है, जो व्यापार करता है। 

4. यदि आप में शूद्र के गुण हैं तो चिल्ला आदि कर लोगों को इक्ट्ठा करना चाहिए ताकि इस परिस्थिति से निकला जा सके। संक्षेप में शूद्र वह व्यक्ति होता है, जो शारीरिक कार्य अर्थात मज़दूरी आदि करता है।

सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी। गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान नहीं हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है, उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में फर्क होना स्वभाविक है। दूसरा सत्य वह होता है, जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश अन्तर नहीं आता। ईश्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी नहीं बदलता, उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए। सत्य को असत्य में से छाँटने के लिए ऋषि दयानंद ने पाँच तरह की परीक्षाएं सुझाई हैं। इन परीक्षाओं को इसी कर्म से घटाने के बाद ही किसी वस्तु को ग्रहण करना चाहिए। 

पहली परीक्षा – वह वस्तु अथवा घटना, ईश्वर के गुणों के अनुकूल होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, क्योंकि, किसी व्यक्ति को बगैर उसके अन्याय के दोषी हाने के मार दिया जाना ईश्वर के गुण न्यायकारिता व दयालुता के विरुद्ध है, इसलिए इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।

दूसरी परीक्षा- वह वस्तु अथवा घटना, सृष्टि नियमों के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, यह मानना कि किसी शरीरधारी का शरीर कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, सृष्टि नियमों के विरुद्ध होने से असत्य है।

तीसरी परीक्षा- वह वस्तु अथवा घटना, आप्त अर्थात धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी पुरुषों के व्यवहारों व उनके उपदेशों के अनुरूप होनी चाहिए।

चौथी परीक्षा – जो वस्तु व घटना, हमारी आत्मा की प्रवृति के अनुरूप हो, वो सत्य और जो, आत्मा की प्रवृति के विरुद्ध हो, वो असत्य। आत्मा की प्रवृति है कि उसे सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता हे। जो वस्तु हमे॑ प्रिय व अप्रिय लगती है, उसे अन्य आत्माओं के लिए भी वैसे ही जानें। जैसे, अन्याय हमें अप्रिय लगता है। 

पांचवीं परीक्षा – किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर जो निर्णय प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा हो, उसे स्वीकारें।

जो वस्तु ऊपर लिखीं परीक्षाओं में से एक भी परीक्षा में उत्तीर्ण होनी से रह जाती है, वो ग्राह्य नहीं। 

मौन रहने को कई बार सत्य के बराबर समझ लिया जाता है, परन्तु, ऐसा है नहीं। सत्याचरण ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। किसी परिस्थिति में, यदि, सत्याचरण के लिए मौन रहना आवश्यक हो, तो मौन रहना उत्तम है और यदि वाणी का प्रयोग आवश्यक हो तो उस परिस्थिति में मौन रहना अनुचित होगा । सत्याचरण के लिए मौन रहना उचित है या वाणी का प्रयोग उचित है-इसका निर्णय हमारी बुद्धि ही कर सकती है। मौन को वाणी के संयम के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु, तभी जब उससे सत्याचरण  की हानि न होती हो। यदि सत्याचरण के लिए मौन रहना अनावश्यक हो तो मौन रहने से हानि यह है कि इससे हमारे आत्मा  पर कायरता अथवा भीरुपन के संस्कार पड़ जाते हैं। वाणी के प्रयोग के लिए यह आवश्यक है कि वह मीठी हो, सत्याचरण के लिए हो और उसका प्रयोजन दूसरों की भलाई के अतिरिक्त कुछ न हो। निम्नलिखित अवस्थाओं में व्यवहार की दृष्टि से मौन रहना उचित है:

1. जब दूसरा व्यक्ति, आपकी बात समझने के योग्य न हो।

2. जब दूसरा व्यक्ति, आपकी कही बात को दूसरों के अहितार्थ प्रयोग कर सकता हो।

सत्य का प्रयोग कहां, कैसे, कब और कितना करना चाहिए-इस बात से अनभिज्ञता होने के कारण भी सत्याचरण को बदनाम किया गया है।

सत्य का प्रारम्भ घर से करना चाहिए-माता पिता से, पति से, पत्नी से, बच्चों से, समाज से करते करते, क्रमश:, क्षेत्र का विस्तार करते हुए सार्वभौम रूप से इसका पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए। सत्याचरण करने वाले की बुद्धि भी अति सूक्ष्म होनी चाहिए, ताकि व्यवहार कभी भी बिगड़ने न पावे।

आपत्तिकाल में भी हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए। चाहे कितनी भी बड़ी विपत्ति हो, झूठ से हमारी हानि ही होगी। क्योंकि, गलत अभ्यास होने से जब आपत्ति काल न भी हो, तब भी, आपत्ति की ओड़ ले कर हम झूठ बोल देंगे।

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