कर्मफल सिद्धान्त से सम्बन्धित कुछ विशेष टिप्पणियां

 

-अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति को ईश्वर की तरफ से सदा सुख, शान्ति, प्रेम, सहयोग, उत्साह, प्रेरणा आदि ही मिलते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है। किन्तु परिवार, समाज की ओर से कभी-कभी सुख, सहयोग, प्रेम, सान्त्वना के विपरीत भय, तिरस्कार, घृणा, उपेक्षा, विरोध, निन्दा, अन्याय आदि भी प्राप्त होते हैं। ऐसे ही बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को ईश्वर की ओर से तो सदा दुखादि ही मिलते हैं, किन्तु परिवार, समाज के व्यक्तियों द्वारा कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को सुख, सहयोग, प्रेम आदि भी मिलते हैं।

-आज की परिस्थिति में समाज में अच्छे व्यक्तियों की संख्या कम है तथा वे संगठित नहीं हैं। न ही वे किसी योजनाबद्ध रूप से बुरे व्यक्तियों का, बुरे कार्यों का विरोध करते हैं।

-अच्छे कार्यों को करना, सत्य व आदर्श पर चलना स्वभावत: परिश्रम साध्य, कष्टकर ही होता है। इसके विपरीत बुरे कार्यों को करने व असत्य, अनादर्ष मार्ग पर चलने में कोई विशेष पुरुषार्थ आदि की अपेक्षा नहीं होती है।

-अच्छे कामों को करने वाले आदर्श व्यक्तियों को, जो कष्ट, बाधा आदि का सामना करना पड़ता है, उसे अच्छे कर्मों का फल तो नहीं मानना चाहिये, किन्तु, इन कष्टों, बाधाओं को अच्छे कर्मों का परिणाम, प्रभाव कहा जा सकता है।

-किया हुआ अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता के सुखों को रोकता हुआ सुख के मूलों को काट देता है, पश्चात अधर्मी दुख ही दुख भोगता है। इसलिए, यह कभी नहीं समझना चाहिए कि कर्त्ता का किया हुआ कर्म निष्फल होता है।

-बुरा कर्म करने का फल तो कर्त्ता को ही समय पर ईश्वर से मिलेगा। किन्तु उस बुरे कर्म का परिणाम व प्रभाव दुख रूप में अन्य व्यक्तियों पर भी पड़ सकता है।

-अच्छे-बुरे कर्मों में जमा घटा अर्थात प्लस (+) माईनस (-) नहीं होते। ऐसा नहीं होता कि किसी ने 100 अच्छे कर्म किए हों तथा 20 बुरे कर्म किए हों तो 100 अच्छे कर्म में से 20 बुरे कर्म कटकर अगले जन्म में फल देने के लिए केवल 80 शुभ कर्म ही बचे रह जाएँ।

-निष्काम कर्म का अर्थ होता है- जिस कर्म के पीछे लौकिक सांसारिक ऐन्द्रयिक सुखों की कामना न हो।

-ईश्वर ने जो अन्धे, लूले, लंगड़े, अपाहिज, निर्बल, रोगी, निर्धन, अज्ञानी बनाए हैं, उनका दण्ड उनको ऐसा बनाने तक ही सीमित है। लंगड़े को चिकित्सा करके उसे ठीक करना परमात्मा की फल व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं है, अपितु, पुण्यार्जन है।

-अज्ञान से किए गए कर्मों का भी फल ईश्वर द्वारा मिलता है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। उदाहरण – किसी व्यक्ति ने भारतीय दण्ड संहिता (INDIAN PENAL CODE) पढ़ी नहीं, वह अनपढ़ है, मूर्ख है और स्वार्थ लोभ आदि से प्रवृत्त होकर किसी अन्य के धन को चुरा लेता है। पुन: पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर वह यह कहे कि मैं तो संविधान को जानता नहीं या पढ़ा लिखा नहीं हूँ। मुझे पता नहीं था कि चोरी करने पर दण्ड मिलता है, जेल जाना पड़ता है। मैं अज्ञानी हूँ, मुझे छोड़ दिया जाए, तो भी न्यायाधीश , पुलिस छोडे़गी नहीं अपितु उसे जेल में डाल देगी। इसी प्रकार ईश्वर को न जानने वाला अज्ञानी व्यक्ति गलत कार्य करे, तो वह दोषी ही माना जाएगा और दण्ड का भागी होगा। जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसके नियमों को जानना हमारा कर्तव्य है। वैसे ही, जिस संसार-साम्राज्य में हम रह रहे हैं, उसके संविधान अर्थात वेद को जानना हमारा कर्तव्य है। हमें पता नहीं है, यह कहकर हम बच नहीं सकते।

-एक मनुष्य जब हत्या, चोरी, डाका आदि बुरे कर्म करता है, तो सरकार उसे कानून के अनुरूप 10 वर्ष तक जेल में भेज देती है। जेल में वह सब प्रकार से परतंत्र हो जाता है। 10 वर्ष पश्चात जब उसकी सजा की अवधि पूरी हो जाती है, तो पुन: छूट कर स्वतंत्र मनुष्य समाज में लौट आता है। ऐसे ही पशु योनि से लौटना समझना चाहिए।

-कर्मों को निष्काम बनाने की विधि बहुत ही सरल है। बस, कर्मों के लौकिक फल की इच्छा समाप्त करते ही कर्म निष्काम बन जाते हैं।

-किसी भी परिस्थिति में झूठ, हिंसा, चोरी आदि यम-नियम विरुद्ध आचरण करना शुभ कर्म नहीं होता।           

-आचार्य ज्ञानेश्वर

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