उपासना क्या है व योग में इसका क्या स्थान है?

 

उपासना

योग अथवा अष्टांग योग के पहले दो अंग– यम और नियम मोटे तौर पर, ज्ञान और कर्म के माध्यम से हमारा व्यवहार संवारते हैं। योग के शेष छ: अंग- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि उपासना पर केन्द्रित हैं। हमारे जीवन की प्रगति के लिए ज्ञान, कर्म व उपासना इन तीनों का सही मिश्रण होना नितान्त आवश्यक है। इन तीनों में से एक का अभाव भी हमारी प्रगति रोक देता है। उपासना का शाब्दिक अर्थ है ‘पास बैठना’। सामान्यत: उपासना का अर्थ ‘ईश्वर की उपासना’ ही लिया जाता है। जैसे पानी में भीगे कपड़े के रोयें रोयें में पानी व्याप्त होता है। उसी भांति अपनी आत्मा को व्याप्य और परमात्मा को व्यापक समझ कर ईश्वर के गुणों से अपनी आत्मा को सराबोर करना अर्थात पूरा भरना ही ईश्वर की उपासना है। उपासना आत्मिक बल का एक मात्र स्रोत है। जितना इन ईश्वरीय गुणों को हमने आत्मसात् किया होगा, उतना अधिक हम ज्ञान व कर्म के पथ पर आगे बढ़ पायेंगे। ये तीनों-ज्ञान, कर्म व उपासना हमारे चित्त को निर्मल बना देते हैं जिससे हम, ईश्वरीय प्रेरणाओं को सुन व समझ पाने में सक्षम हो जाते हैं। प्रत्येक अच्छा कार्य करने के लिए तत्पर होने पर हमारे मन में उत्साह और निर्भयता का संचार होता है व प्रत्येक बुरा कार्य करने के लिए तत्पर होने पर हमारे मन में लज्जा, भय और शंका का जन्म होता है। निर्भयता, शंका आदि ईश्वरीय प्रेरणाएं, हम अपने मन के निर्मल होने पर ही सुन पाते हैं। ईश्वरीय प्रेरणाओं के अनुरूप कर्म ही हमें मोक्ष की ओर ले जाता है।

जब कहा जाता है कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है, तो इसका तात्पर्य कर्म और उपासना की अवहेलना करना नहीं होता। कर्म और उपासना से एक विशेष तरह का ज्ञान हमें होता है। कर्म और उपासना के बिना ज्ञान अपनी चरम सीमा को प्राप्त ही नहीं कर सकता। परन्तु, मुक्ति का कारण केवल ज्ञान ही होता है। 

ईश्वर के आनन्द स्वरूप में अपनी आत्मा को मग्न करना ही उपासना है।

ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।

 

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