इस संसार में कौन-कौन सी वस्तुएं व विषय जानने योग्य हैं?

 

ईश्वर, जीव व प्रकृति हमारे जानने योग्य विषय हैं।

 

परमात्मा अर्थात् ईश्वर- संक्षेप में कहा जाए तो ईश्वर के सर्वज्ञता, आनन्द, न्याय, दया, अनन्त बल आदि गुण हैं। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सारी सृष्टि को नियम में रखना, वेद-ज्ञान को प्रकाशित करना और जीवों के पाप-पुण्यों का फल देना ईश्वर के कर्म हैं। जीव के कर्म परमात्मा के कर्म से बिलकुल भिन्न हैं। कोई भी जीव ईश्वर के कर्म यानि कि सृष्टि की उत्पत्ति आदि नहीं कर सकता। इसी प्रकार ईश्वर भी किसी भी अवस्था में जीवों की भांति शरीर धारण, सन्तानोत्पत्ति आदि नहीं कर सकता। ब्रह्म जीव व जीव ब्रह्म एक कभी नहीं हो सकते। सदा पृथक-पृथक रहते है। जीवात्मा अल्पज्ञ है, अल्प सामर्थ्य वाला है, मुक्त होने पर भी उसका सामर्थ्य और ज्ञान सीमित ही रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, वेद-ज्ञान का प्रकाश आदि कर्म करने से ईश्वर को कर्त्ता कहना उचित है। अन्य लौकिक कार्यों में आत्मा ही कर्त्ता है। परमात्मा तो केवल जीवों को कर्म करते हुए देखता है। जिस तरह लौकिक व्यवहार में यह जानना आवश्यक होता है कि कौन सा पदार्थ कहां और कब उपलब्ध होता है, उसकी सत्ता है भी कि नहीं और उस पदार्थ की पहचान क्या है? उसी तरह ईश्वर के बारे में भी ये सारे प्रश्न किए जाने चाहिए।

ईश्वर का निज नाम ‘ओम्’ है। इसमें उसके सभी गुण, कर्म और स्वभाव समाहित हो जाते हैं। ‘ओ’ और ‘म’ के बीच में लिखा ‘३’, ‘ओ’ के उच्चारण को लम्बा करने का निर्देश देता है। ईश्वर के नामों के विषय को एक उदाहरण से भलि-भांति समझा जा सकता है। एक व्यक्ति को, उसके गुणों- कर्मों पर आधारित अनेक विशेषणों – जैसे छोटा, मोटा, पिताम्बर अर्थात पीले कपड़े पहनने वाला आदि से सम्बोधित किया जा सकता है परन्तु उसके निज नाम में उसके सभी गुणों-कर्मों का समावेश हो जाता है। एक व्यक्ति जिसका नामकरण हो चुका है, को किसी अन्य नाम से पुकारना मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा। इसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति ईश्वर को उसके निज नाम ‘ओम्’ से न पुकार कर, किसी अन्य नाम से पुकारता है, तो उसके इस कृत्य को सही नहीं कहा जा सकता।

आत्मा – आत्माएं अनेक हैं। हर मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि के शरीर में अलग-अलग स्वतंत्र आत्मा है। मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आत्मा पशुओं आदि के शरीर में रहने वाले आत्मा से भिन्न नहीं होता। यह जीवात्मा सदा रहने वाला है। एक ही आत्मा अपने कर्मों के फल स्वरूप मनुष्य शरीर में तथा पशु, पक्षी आदि शरीरों में घूमता रहता है। आत्मा और शरीर के मिल जाने का नाम जन्म है व इनके अलग-अलग हो जाने का नाम है- मृत्यु। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु कर्म करने के पश्चात उसका यथायोग्य फल भोगना ईश्वर के आधीन है। एक शरीर में एक ही मुख्य आत्मा होता है, जो शरीर के संचालन का काम करता है, चाहे वह शरीर चींटी जैसे छोटे प्राणी का हो या हाथी जैसे बड़े प्राणी का। आत्मा कभी भी मृत शरीर में प्रवेश नहीं करती। शरीर के साथ आत्मा का संयोग हो जाने पर उसे जीव के नाम से पुकारा जाता है।

आत्मा का शरीर धारण करने में स्वतंत्र न होना इस बात को सिद्ध करता है कि आत्मा के ऊपर भी कोई शक्ति है। यदि आत्मा अपनी इच्छा से शरीर धारण करने में स्वतंत्र होता तो वह कभी भी लूले, लंगड़े और कुरूप शरीरों में वास न करता। इसी शक्ति को परमात्मा कहा जाता है। परमात्मा की व्यवस्था के अनुरूप आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है।

मृत्यु होने पर आत्मा शरीर से निकल जाता है और इस शरीर को सुख, दुख, पाप, पुण्य, कर्तव्य आदि का बोध नहीं होता। अन्य शब्दों में आत्मा को ही शरीर के माध्यम से सुख दुख आदि की प्रतीति होती है। इसी कारण आत्मा को ही कर्त्ता और भोक्ता कहा जाता है। जैसे यदि कोई मनुष्य शस्त्र विशेष से किसी को मार डालता है, तो वही मारने वाला व्यक्ति ही पकड़ा जाता व दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिए जीव कर्म करने में स्वतंत्र, परन्तु कर्म करने के पश्चात, ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार उस कर्म का फल पाने में पराधीन होता है।

इस विषय पर महर्षि दयानन्द जी के वचन प्रासंगिक हैं-

‘जब तक आत्मा देह में होता है, तब तक उसके गुण, जो इच्छा, द्वेष आदि हैं, प्रकाशित रहते हैं। और जब शरीर छोड़ चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हो, और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना है और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुणों द्वारा होता है।’

यदि ईश्वर ने जीव को बनाया होता तो जीव के अस्तित्व, उसके कर्मों के स्वातन्त्र्य आदि को लेकर अनेकों उलझने पैदा हो जातीं। जीव को ईश्वर का अंश मानना तो, ईश्वर को अखण्ड मानने से इन्कार करना है।

ऐसी भ्रांति है कि लौकिक दृष्टि में सब कुछ करने वाला ईश्वर ही है व जीव कर्म करने में स्वतंत्र नहीं है परन्तु, ऐसा है नहीं।कर्त्ता तो जीव ही है। ईश्वर तो उसके कर्म करने का साक्षी मात्र है। प्रत्येक शरीरधारी मनुष्य में जीव के लक्षण घटते हैं, ईश्वर के नहीं अत: महान से महान पुरुष भी ईश्वर नहीं हो सकता।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के शब्दों में- 

‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला है।’

इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि आत्मा में सब प्रकार का ज्ञान निहित होता है। कुछ लोगों का मानना है कि आत्मा में सब प्रकार का ज्ञान सुष्पति अवस्था में होता है। उसे जागृत अवस्था में लाने पर हम ज्ञान की अनुभूति कर सकते हैं। इस तरह मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए हमें आत्मा में पड़े हुए ज्ञान को जागृत करने के अलावा ओर कुछ भी करना अभीष्ट नहीं होता। ऐसे लोगों का यह मानना है कि इस संसार में आत्मा ही एक जानने योग्य वस्तु है। परन्तु त्रेतवाद के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा में केवल सत् अर्थात होना और चित् अर्थात चेतनता का गुण  विद्यमान  है। उसमें आनन्द का अभाव है। केवल ईश्वर ही आनन्द स्वरूप है, इसलिए यदि आत्मा आनन्द प्राप्त करना चाहता है, तो उसे ईश्वर के सानिध्य में आना ही होगा। बगैर ईश्वर को जाने मोक्ष सुख को प्राप्त करना असम्भव है।

‘आत्मा स्वयं में न तो कभी उत्पन्न होता और न कभी मृत्यु को ही प्राप्त होता है। प्राणी की मृत्यु होने पर भी वह नष्ट नहीं होता। जीवात्माएं संख्या में असंख्य हैं। किन्तु, जो इन सब से परम है, वह परमात्मा है। वह अद्वितीय अर्थात् एक है और उसके समान कोई नहीं है।

(कठोपनिषद् २//८, ऋग्वेद १//१६४//३८, छान्दोग्योपनिषद् ६//११//१३)

 डाक्टर धीरज कुमार आर्य के शब्दों में-

कुछ लोग आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं, जो अनुचित है, क्योंकि अंश  नाम टुकड़े का है। जिसके टुकड़े सम्भव हैं, वह अवयवी होने से अनित्य होता है, जबकि परमात्मा नित्य है और दूसरे, ईश्वर का अंश  होने से आत्मा में ईश्वर के सर्वज्ञतादि गुण भी आने चाहिए, जबकि जीव स्वभाव से अल्पज्ञ और सीमित गुण वाला है।

                                                                                                            

प्रकृति – प्रकृति को ही अंग्रेज़ी में मैटर कहते हैं। हमारा शरीर, मकान, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि सभी प्रकृति से ही बने हैं। प्रकृति भी सदा रहने वाली वस्तु है। केवल अन्तर इतना है कि यह अपना रूप बदलती रहती है। जो आज लकड़ी है आग में जला देने से वह कार्बन, वाष्प और गैसों में बदल जाती है। इस प्रकार बदलने वाले सभी पदार्थ प्रकृति कहलाते हैं। यह प्रकृति कम या अधिक नहीं होती। आधुनिक विज्ञान का यह तथ्य – matter can neither be created nor be destroyed भी इस बात को प्रमाणित करता है कि प्रकृति नित्य है।

जीव के अल्प ज्ञान, अल्पबल, अविभुत्व अर्थात व्यापक न होना आदि गुण ब्रह्म से भिन्न होने से जीव और परमेश्वर एक नहीं। परमेश्वर अति सूक्ष्म और जीव उससे कुछ स्थूल है। जैसे शरीर में जीवात्मा रहता है, वैसे ही जीवात्मा में परमेश्वर व्यापक है। महर्षि दयानन्द जी के शब्दों में कोई भी योगी आज तक ईश्वर कृत सृष्टि क्रम को बदलनेहारा नहीं हुआ है, और न होगा। जैसा परमेश्वर ने नेत्र से देखने और कानों से सुनने का निबन्ध किया है, उसको कोई भी योगी बदल नहीं सका है। जीव ‘ईश्वर’ कभी नहीं हो सकता।

ब्रह्म जीव व जीव ब्रह्म ​एक कभी नहीं हो सकते।

ब्रह्म और जीवात्माओं की भिन्नता को बतलाने वाले निम्न वाक्य स्मरणीय हैं –

1. ब्रह्म एक है – जीवात्माएं अनेक हैं।

2.ब्रह्म व्यापक है – जीवात्माएं व्याप्य अर्थात जिसमें कोई ओर सत्ता व्यापक हो रही हो, हैं।

3. ब्रह्म उपास्य अर्थात जिसकी उपासना की जाए, है – जीवात्माएं उपासक हैं।

4. ब्रह्म सर्वज्ञ है – जीवात्माएं अल्पज्ञ हैं।

5. ब्रह्म सर्वशक्तिमान है – जीवात्माएं अल्प शक्तिमान है।

6. ब्रह्म सर्वव्यापक है – जीवात्माएं एक देशी है।

प्रकृति के निरन्तर बदलते रहने के गुण के कारण प्रत्येक वस्तु के जड़ अथवा चेतन होने को जाना जा सकता है।

ईश्वर, जीव और प्रकृति को जानने के लिए हमें इनके मूल गुणों को जान लेना चाहिए। इससे लाभ यह होगा कि हम अनीश्वर को ईश्वर व ईश्वर को अनीश्वर, जीव को अजीव व अजीव को जीव और प्रकृति को अप्रकृति व अप्रकृति को प्रकृति नहीं समझेंगे। इससे हम जो चीज़ जैसी है, उसको वैसी ही समझ पाएगें।

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