महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

-कृष्ण चन्द्र गर्ग

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म सन् १८२४ में गुजरात प्रान्त की मौरवी रियासत में हुआ था। उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में शिव मन्दिर में शिवलिंग की पूजा करते हुए उस पर चढ़े चूहे को देखकर मूर्ति पूजा का निरर्थक होना महसूस किया। उसके पश्चात् अपनी छोटी बहिन तथा चाचा की मृत्यु को देखकर मृत्यु के भय से बचने का उपाय सोचना आरम्भ कर दिया। इक्कीस वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया। बहुत से योगियों से योग सीखा तथा विद्वानों से विद्या पढ़ी। भ्रमण भी बहुत किया, परन्तु सन्तुष्टि न हुई। अन्त में छत्तीस वर्ष की आयु में मथुरा जाकर स्वामी विरजानन्द जी से अढ़ाई वर्ष तक व्याकरण तथा अन्य आर्ष ग्रन्थ पढ़े। उसके पश्चात् ही वे कार्यक्षेत्र में उतरे।

महर्षि दयानन्द की भारत को देन-

१.     वेद– लोग वेद का नाम मात्र जानते थे। यह नही जानते थे कि वेद के अन्दर है क्या? वेद बेकार तथा गड़रियों के गीत कहे जाने लगे थे। स्वामी दयानन्द ने डंके की चोट से घोषणा की कि सभी सत्य विद्याएं वेद के अन्दर हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए दिया तथा वेद के अन्दर कुछ भी गलत या निरर्थक नहीं है। उन्होंने वेद को स्वतः प्रमाण माना। जो बात वेदानुकूल वह ठीक और जो वेद विरुद्ध उसे गलत बताया।

२.     शूद्र को वेद पढ़ने का अधिकार– ब्राह्मणों ने यहां तक कि शंकराचार्य तथा रामानुज आदि आचार्यों ने भी शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार न दिया। परन्तु महर्षि दयानन्द ने घोषणा की कि वेद पढ़ने का अधिकार मनुष्य मात्र को है। जैसे ईश्वर के दिए हुए सूर्य का प्रकाश व गर्मी और हवा आदि का उपभोग करने का अधिकार सबको है, वैसे ही ईश्वरीय ज्ञान वेद पढ़ने का अधिकार सबको है, शूद्रों को भी।

३.     ब्रह्मचर्य-आर्यों में बाल विवाह का प्रचलन और ब्रह्मचर्य का लोप हो जाने से शारीरिक बल कम हो रहा था। आर्य जाति औरों की तुलना में कमजोर मानी जाने लगी थी। इसी कारण से, उसे समय-समय पर अपमानित भी होना पड़ा। महर्षि दयानन्द ने इसके विरुद्ध प्रबल आवाज उठाई। अपने जीवन से तथा उपदेशों से ब्रह्मचर्य का सिक्का बिठा दिया।

बाल विवाह के कारण देश में करोड़ों बाल विधवाएं थीं, जिनमें एक-एक, दो-दो वर्ष की बच्चियां भी थीं। बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार करके तथा विधवा विवाह की वकालत करके देश से इस पाप को मिटाया।

४.     स्त्रियों की स्थिति– समाज में स्त्रियों का सम्मान न था। आदि गुरु शंकराचार्य ने उन्हें ‘नरक का द्वार’ बताया। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा- ‘ढोल गंवार शूद्र अरु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।’ उन्होंने स्त्रियों को ढोल की तरह पीटने की आज्ञा दी। परन्तु महर्षि दयानन्द ने स्त्रियों को सम्मान के योग्य बताया तथा महर्षि मनु के अनुसार घोषणा की-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।

अर्थ- जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है उस घर में उत्तम गुण, उत्तम सन्तान होते है। जिस घर में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, उस घर में चाहे कुछ भी यत्न करो सुख की प्राप्ति नहीं होती।

ऋषि दयानन्द के आने से पहले, स्त्रियों को परदे में रखा जाता था। तथा उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता था। महर्षि ने स्त्रियों की शिक्षा की जोरदार वकालत की। उन्होंने कहा कि स्त्रियों को सम्मान दिलाने के लिए, सन्तान की उत्तम शिक्षा के लिए तथा समाज की उन्नति के लिए स्त्रियों को शिक्षित करना परम आवश्यक है।

५.     जातपात– जन्म की जातपात के कारण समाज में बहुत तगड़ी फूट पड़ गई थी। समाज बहुत बंट गया था। अलग अलग खान पान, विवाह आदि व्यवहार पैदा हो गए थे। समाज विघटित हो गया था।

महर्षि दयानन्द ने जन्म की जातपात का घोर विरोध किया। उन्होंने इसे वेद विरुद्ध बताया। उन्होंने गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि जो विद्या नहीं पढ़ा है, वह शूद्र है चाहे वह ब्राह्मण के घर पैदा हुआ हो और जो पढ़ा लिखा विद्वान् है वह ब्राह्मण है, चाहे वह शूद्र के घर पैदा हुआ हो।

६.     हिन्दी प्रचार– हिन्दी भाषा उर्दू और अंग्रेजी की वेदी पर बलिदान हो चुकी थी। हिन्दी गन्दी कहलाने लगी थी। हिन्दी पुस्तक और हिन्दी अखबार पढ़ना फैशन के विरुद्ध समझा जाने लगा था। महर्षि दयानन्द ने स्वयं गुजराती होते हुए भी हिन्दी को अपनाया तथा हिन्दी भाषा को ही सारे देश की भाषा बनाने के लिए प्रचार किया। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि आदि अपने ग्रन्थ उन्होंने हिन्दी में ही लिखे। राष्ट्र की एकता के लिए भाषा की एकता को वे परम आवश्यक मानते थे।

७.      विधर्मियों से टक्कर– वैदिक धर्म के विरोधियों से उन्होंने जमकर टक्कर ली। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वैदिक धर्म ही संसार में एकमात्र सच्चा धर्म है।

महान विद्वान् होने के साथ साथ स्वामी दयानन्द बहुत बड़े योगी भी थे। वे आदित्य ब्रह्मचारी थे। शरीरिक बल, मानसिक बल, बुद्धि बल तथा आत्मिक बल उनमें गजब का था। स्वराज्य प्राप्ति की तथा राष्ट्रीयता की भावना उनमें कूटकूट कर भरी हुई थी। वे एक ईश्वर को मानते थे। मूर्ति पूजा को सभी बुराईयों की जड़ मानते थे। वे कहते थे कि जड़ पूजा करने वालों की बुद्धि भी जड़ हो जाती है। दूध और बैलों की प्राप्ति के लिए गाय को देश का आर्थिक आधार मानते थे। गोहत्या बन्द करवाने के लिए उन्होंने हस्ताक्षर अभियान चलाया, ‘गोकरुणानिधि’ नाम की पुस्तक लिखी तथा ‘गोकृष्यादि रक्षिणी सभा’ की स्थापना की। हस्ताक्षर अभियान के दौरान ही १८८३ में दीपावली की सायं उनकी मृत्यु हो गई।