संध्या की महत्ता

-पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय

पंच महायज्ञों में सबसे पहला ब्रह्म-यज्ञ है। ब्रह्म-यज्ञ का मुख्य भाग है संध्या। ‘महायज्ञ’ का ‘महा’ शब्द बताता है कि यह महायज्ञ बड़ा यज्ञ है जिसमें सैंकड़ों कृत्यों का करना आवश्यक होगा और बहुत सा धन तथा रुपया लगता होगा। वस्तुतः यह बात नहीं है। यह पंच महायज्ञ बहुत छोटा है। इसको ‘महायज्ञ’ कहने का हेतु यह है कि मनुष्य की इतिकर्तव्यता में यह सबसे प्रथम है और इसके करने से मनुष्य का आचार और अध्यात्म बनता है।

संध्या का अर्थ है ध्यान करना अर्थात् परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के विषय में इस प्रकार सोचना कि हम परमात्मा के अस्तित्व का इस जगत् में और अपने जीवन में अनुभव कर सकें। इसलिये ‘मन से सोचना’ संध्या का मुख्य उद्देश्य है। शेष सब कृत्य गौण हैं, मौलिक नहीं।

संध्या के तीन भाग हैं- (१) शारीरिक, अर्थात् स्नानादि करके एकान्त में, जहाँ ऊंची-नीची भूमि न हो, कोलाहल न हो, पूरी शान्ति विराजती हो, आसन जमाकर बैठना। हथेली पर पानी लेकर तीन ‘आचमन’करना, या शरीर के अन्यान्य अवयवों पर छींटे देना।

(२) दूसरा भाग है- वाचिक, अर्थात् ऊपर के लिखे हुए कृत्यों को करते हुए नियत मन्त्रों को पढ़ना।

(३) तीसरा भाग है- मानसिक अथवा भीतरी, अर्थात् अर्थ समझते हुए ईश्वर के गुणों का चिन्तन करना। इनमें सबसे आवश्यक भाग है तीसरा। यदि यह तीसरा भाग उचित रीति से सम्पन्न न किया जाय, तो संध्या सर्वथा निष्फल हो जाती है, क्योंकि ‘संध्या’ का अर्थ है ‘संध्या’ या ‘अच्छे प्रकार ध्यान करना’। यदि ध्यान नहीं तो कुछ भी नहीं। केवल आचमन करना या आसन जमाना या पानी छिड़क लेना संध्या नहीं है। न इससे कोई लाभ है। यह केवल एक तैयारी है।

       

संध्या क्यों करनी चाहिये? ईश्वर की खुशामद के लिए नहीं। ईश्वर आनन्दस्वरूप है। यह गुण उसमें सदा बना रहता है। आप उसको हर्षित नहीं कर सकते और न वह संध्या न करने वालों से क्रोध करता है।

जिस प्रकार आप शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भोजन करते हैं (किसी को खुश, या नाराज करने के लिए नहीं), इसी प्रकार आध्यात्मिक और मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए आप संध्या अर्थात् ईश्वर के गुणों का ‘ध्यान’ करते हैं। ईश्वर सबसे पूर्ण, सबसे पवित्र और सबसे उत्कृष्ट सत्ता है। इसके गुणों से आपका मन शुद्ध होगा। मन के शुद्ध और पवित्र होने से बुरे कर्म न होंगे। बुरे कर्म न होने से आपको आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होगी। यदि आप संध्या न करेंगे तो आपका मन संसार के प्रपंच में लगा रहेगा, विचार दूषित होंगे और पापों से प्रेम होगा।

इसका परीक्षण तो आप सुगमता से कर सकते हैं। यदि आप अच्छे लोगों के साथ बैठना छोड़ दें तो धीरे-धीरे आप बुरे लोगों की संगति में बैठने लगेंगे और उन्हीं के से आपके विचार हो जायेंगे।

जब हम ईश्वर के गुणों का ध्यान करते हैं तो हमारा मन बुरी बातों से बचा रहता है। यही संध्या करने का वास्तविक लाभ है।

आप गुलाब के बाग में सैर कीजिये। उसकी सुगन्ध आपके मस्तिष्क को सुरभित करेगी। आप न तो गुलाब की खुशामद करते हैं, न गुलाब के गुणों में आधिक्य करते हैं,  लाभ आपको होता है। आप गुलाब पर अहसान नहीं करते, अपितु आप स्वयं गुलाब के ऋणी होते हैं। इसी प्रकार जब हम ईश्वर की महिमा पर विचार करने लगते हैं और उसके विषय में सोचने लगते हैं तो हमारे हृदय में उसके लिए प्रेम हो जाता है। ईश्वर के प्रेम से दुर्व्यसनों से घृणा हो जाती है। आपमें ईश्वर की पवित्रता का प्रवेश हो जाता है। सदाचारी स्वामी का सेवक स्वभावतः अनाचार से घृणा करता है। गुलाब के बाग के सुगन्धित वातावरण में रहनेवाले लोग दुर्गुणों को सहन नहीं कर सकते।

ईश्वर की उपासना से मनुष्य में शक्ति और साहस की उत्पत्ति होती है। अपने बाप के कन्धे पर बैठा हुआ बच्चा अपने को ऊँचा और साहसी समझने लगता है। ईश्वर की सत्ता का अनुभव करने वाला उपासक किसी से डरता नहीं-

हमारे साथ है प्यारा हमारा,

तकें हम ओर का फिर क्यों सहारा?

हमारी जिन्दगी का वह सहारा,

हमारी मौत में भी वह हमारा।।

जो लोग यह समझते हैं कि हम उपासना करते हैं ईश्वर को खुश करने के लिए, वे उपासना के तत्व को नहीं समझते।

कुछ लोगों की धारणा है कि यदि हम ईश्वर की उपासना करेंगे तो ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा। इस विचार ने दुनिया को धोखे में डाल रखा हैं, और बहुधा उपासक लोग बुराई की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। हमको याद रखना चाहिये कि ईश्वर न्यायकारी है। वह हर काम का भला या बुरा फल देता है, वह रिश्वत नहीं लेता। उपासना या संध्या रिश्वत नहीं है।

कुछ लोग जब किसी विपत्ति में होते हैं तो ईश्वर से शिकायत करते हैं कि हम तो दोनों समय संध्या करते हैं, ईश्वर ने हमको यह तकलीफ क्यों दी? यदि हम पर दुख-पर-दुख पड़ते हैं, तो हम ईश्वर की उपासना ही क्यों करें? बहुत से लोग ईश्वर की उपासना छोड़ बैठते हैं। एक युवक ने शिकायत की कि मेरा बाप ईश्वर का उपासक और सदाचारी था। वह युवा-अवस्था में क्यों मर गया? यदि ईश्वर के उपासकों की यही गति होती है, तो वहीं अच्छे हैं जो कभी उपासना नहीं करते। ऐसी शिकायत करने वाले लोग सत्यता को नहीं सोचते।

हमारे दुख हमारे पापों के फल हैं। बदपरहेजी करनेवाला उपासक बदपरहेजी के फल से बच नहीं सकता। अचानक मर जाना किसी कर्म का शुभ-अशुभ फल होगा। बहुत सम्भव है कि मरनेवाले को उसके पुण्य कर्मों के बदले अधिक उत्कृष्ट जीवन मिल जाय। यह तो ईश्वर ही जान सकता है।

यदि आप संध्या करने से सदाचारी नहीं बन सके तो संध्या के करने में कोई त्रुटि रह गई होगी, या आपका मन इतना मैला है कि उसके लिए अधिक और निरन्तर साबुन से रगड़ने की आवश्यकता है। हमको अपने मन का मैल छुड़ाना है। मन का मैल तो ज्ञान अर्थात् सोचने और विचार करने से ही छूट सकेगा-

जेगी जुगत जानी नहीं, कपड़े रंगे तो क्या हुआ!

यदि ईश्वर की रचना पर विचार नहीं किया, उसके अनुग्रहों पर ध्यान नहीं दिया और केवल आसन जमाकर ऊपरी कृत्यों को करते रहे तो यह संध्या नहीं है। मत समझो कि जो विविध प्रकार के आसन करता है वह योगी है। आसन तो नट भी कर सकते हैं। जो लोग आसनों को दिखा-दिखाकर लोगों से प्रशंसा की इच्छा करते हैं, वे अपने को और संसार को धोखा देते हैं। संध्या नुमाइश (प्रदर्शिनी) नहीं है। प्रदर्शिनी संध्या नहीं है। आप चाहे उच्च स्वर से मन्त्र पढ़ें चाहे चुपचाप, दोनों प्रकार ठीक हैं, परन्तु शर्त यह है कि आपका मन संध्या में लगा रहे, और वह दिखाने के लिए न हो। आप अपने मन को टटोलते रहें और बारम्बार ईश्वर के गुणों का ध्यान करते रहें। संध्या के मन्त्रों में ईश्वर के गुणों का ध्यान ही बताया गया है। संध्या में मन्त्रों को इस क्रम से रखा गया है कि आपको मन के वश में करने में सहायता मिलेगी।

एक बात याद रखनी चाहिये, मन बड़ा चंचल होता है। आप इसे सुगमता से एकाग्र नहीं कर सकते, परन्तु निरन्तर अभ्यास से सफलता प्राप्त हो सकती है। आपका मन सांसारिक वस्तुओं की ओर क्यों जाता है? इस प्रश्न पर थोड़ा सा विचार कीजिये। सांसारिक वस्तुएँ मीठी लगती हैं। उनके रस में एक आकर्षण होता है। बच्चे को मिठाई दो, वह तुमसे प्रेम करने लगेगा। इसी प्रकार यदि हम निरन्तर ईश्वर-प्रदत्त अच्छी चीजों पर विचार करें तो हमको ईश्वर से प्रेम हो जायेगा। माँ-बाप हमको अच्छी-अच्छी चीजें देते हैं और हमारी भूलों पर हमको ताड़ना भी देते हैं। जो लड़के अपने माता-पिता की ताड़ना पर दृष्टि रखते हैं और उनके अनुग्रहों की उपेक्षा करते हैं, वे माता-पिता के प्रतिकूल हो जाते हैं और बहुत से दुराचरणों के शिकार हो जाते हैं। जो लोग कभी नहीं सोचते कि ईश्वर ने उनको कैसी-कैसी अच्छी चीजें दी हैं वे सदैव यही शिकायत करते हैं कि उनको अमुक-अमुक दुख है। उनके हृदय में ईश्वर की ओर से भय हो सकता है, उसके लिए भक्ति या प्रेम नहीं हो सकता। संध्या के मन्त्रों में बताया गया है कि ईश्वर का प्रेम उसके उपकारों से प्रमाणित होता है। ईश्वर के उपकार अनगिनत हैं। शर्त यह है कि हम उन पर विचार करें। जो बच्चा यह तो सोचता है कि उसकी माता ने उसको कितनी बार झिड़का, पर कभी यह नहीं सोचता  कि माता ने कितने प्रेम से उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया या रक्षा की, वह मातृ-भक्त नहीं बन सकता, और उसके लिए उसे दण्ड उठाना पड़ेगा-

हमारी तंगनजरी ही हमारे दुख का कारण है,

वरना कम नहीं बंदों पै उसके नेमतें उसकी।

अर्थात् हमारे दुखों का कारण हमारी तंग-दृष्टि है, अन्यथा ईश्वर के उपकार मनुष्यों के ऊपर कम नहीं हैं।