योग वा अष्टांग योग

योग विषयक अधिकतर मौलिक बातें पहले बताई जा चुकी हैं। नीचे, इस विषय की कुछ सूक्ष्मताओं का वर्णन किया जा रहा है।

योग का पहला अंग-यम

1. अहिंसा

अहिंसा-पालन के लाभ

  1. अहिंसा का पालन करने वाले के मन, वाणी व शरीर में किसी प्रकार का वैर-द्वेष नहीं रहता है। प्राणी मात्र (मनुष्य व मनुष्येतर योनियों) के प्रति पूर्ण प्रेम की भावना रहती है।
  2. ईश्वर पूर्ण अहिंसक है। अतः अहिंसक व्यक्ति ईश्वर का परम मित्र बन जाता है।
  3. व्यक्ति दुःखों से निवृत और सुखों से युक्त हो जाता है।
  4. निर्भयता की प्राप्ति होकर बुद्धि का पूर्ण विकास होता है।
  5. मन शान्त होने से समस्त मनोविकारों से मुक्ति मिल जाती है।
  6. व्यक्ति आत्मा व परमात्मा के दर्शन करने का अधिकारी बन जाता है।

2. सत्य

जब तक आत्म-तत्व को जीवन के सामने नहीं रखेंगे तब तक असत्य का त्याग व सत्य का ग्रहण कठिन ही रहेगा। यह योग, आत्मा को समक्ष रखकर जीवन जीने की कला सिखाता है।

सत्य का प्रयोग कहाँ, कैसे, कब करना चाहिए इसकी जानकारी न होने से भी सत्याचरण को बदनाम किया गया है। हमें सत्य का प्रयोग करना आना चाहिए। अनधिकारी के सामने सत्य न बोलें, वहाँ मौन रहें। बच्चों के साथ भी इस तरह व्यवहार करें कि झूठ भी न बने और व्यवहार भी कर सकें। सत्याचरण करने वाले की बुद्धि अति सूक्ष्म होनी चाहिए। अर्थात् सत्य को जिताने की क्षमता होनी चाहिए। जिससे व्यवहार न बिगड़ने पावे।

सत्य-पालन के लाभ

  1. सत्य का पालन करने वाले के प्रति मनुष्य मात्र का विश्वास बनता है।
  2. सत्याचरण करने वाला सब के दिलों को जीत लेता है। उसे शत्रु भी दिल से स्वीकार करता है।
  3. सत्याचरण करने वाले को ही आत्मदर्शन होता है।
  4. सत्य का पालन करने वाला अन्दर से सुखी रहता है।
  5. सत्य का पालन करने वाले को बुद्धिमानों से प्रशंसा, यश व धन की प्राप्ति होती है।
  6. सत्य से जीवन में निर्भीकता आती है।
  7. सत्य से अहिंसा पुष्ट होती है अर्थात् किसी को अन्यायपूर्वक कष्ट-पीड़ा दुःख नहीं देता है।
  8. सत्यवादी व्यर्थ चिंताओं व वैचारिक उलझनों से बचता है, क्योंकि उसे झूठ बोलने की योजना बनाने का श्रम नहीं करना पड़ता, यह याद नहीं रखना पड़ता कि किसको कब, क्या झूठ कहा था, झूठ पकड़े जाने की चिन्ता नहीं सताती और झूठ पकड़े जाने पर नई-नई कहानियाँ घढ़ने की माथापच्ची नहीं करनी पड़ती।  
  9. जब व्यक्ति अपने आत्मा को मार कर कोई बात नहीं कहता वरन् प्रसन्नता पूर्वक एवं आत्म-विश्वास के साथ कहता है, तब वह सत्य बोल रहा होता है। आत्मा वास्तव में तभी प्रकाशित होता है जब व्यक्ति सत्य बोलता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति का आत्मा मृतप्रायः अर्थात् अधंकार में डूबा होता है।

आत्मा प्रकाशित और उन्नत किस प्रकार होता है? महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- जैसे जलती अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और प्रचण्ड होकर अधिक प्रकाश उत्पन्न करती है, इस प्रकार सत्य की आहुति आत्मा में पड़ने से वह उन्नत और प्रकाशित होता है।

हम यह चाहते हैं कि किसी को कपड़ा देकर उसका कल्याण कर दें तो कपड़े के लिए झूठ बोलते हैं। पैसा, भवन, अन्न, और भी न जाने किस-किस जड़ पदार्थ को देने की इच्छा से हम झूठ बोलते हैं? आत्मा को उसके कल्याण के लिए मात्र जड़ पदार्थों की नहीं, सत्य की भी आवश्यकता है। जड़ पदार्थ, जो नष्ट हो जाते हैं, उनसे आत्मा तृप्त नहीं होता। ये पदार्थ तो यहीं छोड़ने पड़ते हैं। सत्य ही उसके साथ रहता है। इसलिये शास्त्र का वाक्य है-‘सत्यमेव जयते’  सत्य ही की विजय होती है। यह हमें आज समझ न आया, कोई बात नहीं। एक बार इसे करके तो देखें। पिछले जन्म में भी यही कहा था-झूठ के बिना काम नहीं चलता। इस जन्म में भी यही कहते हैं। अगले जन्म में भी यही कहेंगे। तो फिर सत्याचरण का अवसर कब आयेगा? एक बार परीक्षा करके देखें। डर किस बात का है? किसके लिए डरते हैं? प्रिय वस्तु छूट जायेगी। वह तो असत्य बोलने से भी छूटेगी। छूटने दो जो कुछ भी छूटता है। हमें अपनी दूषित विचारधारा बदलनी ही होगी।

विचार करके देखिये। हमारा आत्मा जाने कब से, उस प्रभु के दर्शनों के लिए, प्रभु-मिलन के लिए तरस रहा है। उस प्रभु से हम दूर क्यों हैं? कौन हमें उस प्रभु से मिलने नहीं दे रहा है। यह वही असत्य, झूठ है जो हमें ईश्वर से मिलने में बाधक है।

पता नहीं हमारे अन्दर ये भाव क्यों नहीं आ रहे हैं? गलत काम करके जाने किन साधनों को हम प्राप्त करना चाहते हैं? एक व्यक्ति गलत को गलत स्वीकार करता है, परन्तु गलत को त्यागने में असमर्थ है। यह एक स्थिति है। दूसरा व्यक्ति गलत को गलत मानने को तैयार ही नहीं। वह समझता है कि सत्याचरण की सांसारिक लोगों के लिए बाध्यता नहीं है। यह तो विरक्त के जिम्मे आ गया, यह सन्तों-महात्माओं के लिए है। यह दूसरी स्थिति है। किन्तु महर्षि दयानन्द कहते हैं-‘मैं सांसारिक गृहस्थों को कह रहा हूँ कि चाहे सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य ही क्यों न मिलता हो, झूठ कभी मत बोलो। उसे सत्य के लिए त्याग दो।’ हम आज जिन पदार्थों के लिए झूठ बोल रहे हैं वो तो तुच्छ पदार्थ हैं, परन्तु ऋषि तो सत्य के लिए सार्वभौम साम्राज्य को भी छोड़ने के लिए गृहस्थों को कह रहे हैं।

महर्षि दयानन्द ने कहा-‘कोई चाहे कितना ही बलवान-सामर्थ्यवान्, अन्यायी हो, उसका सदा विरोध करो। न्यायकारी, सत्यवादी चाहे कितना ही दुर्बल हो, उसे सदा सहयोग करो।’ परन्तु हम नहीं समझ पाते इसे।

3. अस्तेय

दूसरों को अपने पदार्थों को दे कर दानी बनना भी अस्तेय की स्थापना में सहायक है। सब को सब कुछ मिले, इस पुण्य विचार में अपनी आहुति दे कर हम अपने पदार्थों का उपभोग निर्विघ्नता से कर सकते हैं। अन्यथा स्वामी होकर भी पदार्थों का उपभोग शान्ति से नहीं कर पायेंगे। क्योंकि अभावग्रस्त व्यक्ति पदार्थों को छीनने का सदा प्रयत्न करते हैं। अतः दान देकर ही समाज में अस्तेय की पूर्ण स्थापना कर पायेंगे।

हम अनेक बार अपने निकटस्थों (माता, पिता, पति, पत्नी, भाई, बहन आदि) के साथ अस्तेय का पालन नहीं कर पाते हैं, अर्थात् हम एक दूसरे की वस्तु बिना पूछे ले लेते हैं। यह भी चोरी के अन्दर आ जाता है। चाहे पति की वस्तु पत्नी लेवे या पत्नी की वस्तु पति लेवे। भले ही पुनः यथास्थान रख देवें। क्योंकि बिना पूछे लेने के कारण उनको वह वस्तु समय पर नहीं मिलती है और वे दुःखी होते हैं एवं उसे ढूंढते रहते हैं, तो समय व्यर्थ होता है। अतः चाहे किसी की भी वस्तु हो बिना पूछे न लेवें।

ऐसा करने पर व्यवहारिक कठिनाइयाँ आती है। अतः यह हमें बाधक प्रतीत होगा। परन्तु बुद्धिपूर्वक विचारकर पहले से ही एक दूसरे (चाहे पति-पत्नी के बीच में भी क्यों न हो) से स्वीकृति ले कर रखें कि आपकी अनुपस्थिति में आप की कोई वस्तु ले सकता हूँ अथवा नहीं। यदि स्वीकृति मिल जाती है तो हमारे द्वारा उनकी वस्तुओं को उनकी अनुपस्थिति में लेने पर उन्हें दुःख नहीं होगा एवं उनका समय भी व्यर्थ नहीं होगा। ऐसा करना सभी बुद्धिमानों के लिए उचित होगा। ऐसी परिस्थिति में ही अस्तेय का पूर्ण पालन हो पायेगा।

अस्तेय-पालन के लाभ

  1. अस्तेय का पालन करने वाला व्यक्ति शान्त, प्रसन्न, सन्तुष्ट व सुखी रहता है।
  2. चोरी न करने वाले का सभी विश्वास करते हैं और प्रत्येक शुभ कार्य में पूर्ण सहयोग देते हैं।
  3. अस्तेय का पालन करने से उत्तम-उत्तम पदार्थों का सर्वाधिक प्रयोग उत्तम रीति से कर सकते हैं।
  4. अस्तेय का पालन करने वाला व्यक्ति प्रभु दर्शन करने का अधिकारी बनता है।
  5. अस्तेय का पालन करते हुए सब के आदरणीय बनकर सभी के हृदयों में अच्छा स्थान बना लेते हैं।
  6. अस्तेय का पालन करने से अहिंसा में निखार आता है, जिससे किसी को भी अन्याय पूर्वक दुःख-पीड़ा कष्ट नहीं होता है।

अहिंसा को परिपक्व करने के लिए जहाँ सत्य सहायक है वहीं पर अस्तेय भी अहिंसा को सिद्ध करने के लिए है। मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं, हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम कितना अस्तेय का पालन करते हैं। जैसे कपड़ा बेचने वाला, ग्राहक के सामने ही उसे धोखा देता है। ग्राहक पांच मीटर कपड़े का मूल्य चुकाकर उतने कपड़े का स्वामी बन जाता है, किन्तु दुकानदार माप में धोखा देकर उसे पांच मीटर से कम कपड़ा देता है। वह उसी के सामने उसके द्रव्य (यहां कपड़ा) का चालाकी से हरण कर लेता है।

4.ब्रह्मचर्य

आजकल गुप्त-इन्द्रिय (उपस्थ-जननेन्द्रिय) के संयमपूर्वक उपयोग को ही ब्रह्मचर्य नाम से जाना जाता है। वस्तुतः इस शब्द का अर्थ है- अपनी सभी इन्द्रियों का संयमपूर्वक उपयोग।

मन में सदा पवित्र विचारों को रखने व स्मरण करने से ब्रह्मचर्य का पालन अच्छा होता है। शरीर को दृढ़-बलवान् बनाने के लिए नित्यप्रति अपने सामर्थ्य के अनुसार आसन, व्यायाम (सरल व कठोर) करने से वीर्य की रक्षा होती है। व्यवस्थित सात्विक भोजन, व्यवस्थित निद्रा व व्यवस्थित दिनचर्या से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।

ब्रह्मचर्य-पालन के लाभ

  1. शरीर दृढ़, बलवान, आकर्षक व स्वस्थ हो जाता है।
  2. शारीरिक शक्तियाँ पूर्ण आयु तक बनी रहती हैं।
  3. बुद्धि सूक्ष्म होती है। कम समय में अधिक कार्य करने की क्षमता आती है। अधिक मात्रा में सामाजिक कार्य कर सकते हैं।
  4. रोग प्रतिरोधक क्षमता पर्याप्त मात्रा में बढ़ती है।
  5. प्रभु दर्शन करने के अधिकारी बनते हैं।
  6. मृत्यु को जीत कर मृत्युञ्जय बनते हैं।
  7. शारीरिक बल के साथ-साथ आत्म-बल बढ़ता है।
  8. अपने व्रतों/संकल्पों/निश्चयों पर दृढ़ रहने की शक्ति बहुत बढ़ती है।
  9. अहिंसा उन्नत होती है, जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व में सुव्यवस्था बनने से सार्वभौम रूप से सब को सुख-आनन्द मिलता है।

अहिंसा की पुष्टि में जितनी महत्ता सत्य व अस्तेय की है उतनी ही महत्ता ब्रह्मचर्य की है। ब्रह्मचर्य से अहिंसा की पुष्टि होती है, और व्याभिचार से हिंसा की पुष्टि होती है। वेदों में जितनी महिमा सत्य और अस्तेय की गई है, उतनी ही महिमा ब्रह्मचर्य की भी गाई गई है।

आज हम ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर पा रहे हैं। हमारे जीवन में वह संयम नहीं है। हम संयम नहीं कर सकते क्योंकि हम अपने जीवन के प्रति ईमानदार नहीं हैं। वह संयम नहीं है हमारे में, इसलिए हम डरपोक बन गये हैं। डरने वाले बन गये हैं, सदा डरते रहते हैं हम, कोई कम डरता है कोई ज्यादा डरता है, पता नहीं किस-किस से हम डरते हैं। जिस मृत्यु के डर से सारा जग काँप करके थरथरा रहा है उसको ब्रह्मचारी यूँ उठा कर फेंक देता है।

लेकिन आज की स्थिति को देखिए। हम अपने को देखें, अपने को टटोल कर देखें तो पग-पग पर पता चलेगा कि मैं कितना असंयमी हूँ। इतना असंयमी रहते हुए मैं किसकी इच्छा रखता हूँ? किसकी कल्पना कर रहा हूँ? मेरी कल्पना कितनी ऊँची हो गई? आज मैं भगवान् का दर्शन करना चाह रहा हूँ, दल-दल में फंस करके, दल-दल में जीता हुआ। न देखने में संयम है, न खाने में संयम है, न सूंघने में संयम है, न छूने में संयम है, न उठने में संयम है, न बैठने में संयम है, न सोने में संयम है, किसी में संयम नहीं है। सारा का सारा जीवन पता नहीं कैसे बीत रहा है। अपने जीवन के मूल्य को कभी समझा नहीं है और आज मृत्यु से बचने की इच्छा कर रहा हूँ मृत्यु को जीतना चाहता हूँ। हम उड़ती-उड़ती बातों में जीवन बिता रहे हैं, जो अत्यन्त घातक है। जो बातें-वस्तुएँ सदा मृत्यु के मुख के अन्दर धकेलने वाली हैं उन्हीं को आज हम कल्याणकारक मानते हैं,

इस जीवन में कुछ तो कर डालूं मैं। कुछ तो कर लूं इस जीवन में। आदमी ये सोचता है आगे देखेंगे अभी तो मुझे कुछ गलत करने दो। जो शिक्षा खुद हम देते हैं अपने बच्चों को, बेटा ऐसा नहीं करना चाहिए, बेटा ऐसा नहीं करना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए। वो ही शिक्षा बदल जाती है, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें हम कहते हैं-बेटा इसके बिना काम नहीं चल सकता, तुझे ऐसा तो करना पड़ेगा। तुझे इस संसार में जीना हो तो ऐसा-ऐसा करना पड़ेगा।

आज हमारे सामने विकट परिस्थिति है। वेद एवं ईश्वर की बातें हमारी बुद्धि में नहीं बैठ पा रही हैं। यदि इनमें से कुछ बातें हम समझ भी जाते हैं तो उनमें रुचि न होने के कारण उन बातों को प्रायः भूल जाते हैं। भूलने का एक और भी बड़ा कारण है-संयम न रख पाना। बिना संयम स्मृति नहीं बनती और स्मृति ‘ब्रह्मचर्य’ के बिना तीव्र नहीं हो सकती। शास्त्रों की सूक्ष्म-बातें सूक्ष्म-बुद्धि से ही समझी जा सकती है। बुद्धि सूक्ष्म तब होती है जब हमारे शरीर में भोजन का सार प्रचुरता से होगा। भोजन का सार सूक्ष्म तत्त्व है ‘शुक्र’। शुक्र सुरक्षित रहेगा ब्रह्मचर्य पालन से। आज सूक्ष्म बुद्धि का प्रायः अभाव है। कारण क्या है? हमारा असंयमी होना, ब्रह्मचर्य की शक्ति से पुष्ट न होना।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा आज का व्यवहार, इन्द्रिय पर संयम, ऐसा ही है, जैसा कि उस व्यक्ति का जो शर्त लगा कर निर्धारित सौ जूते भी खायेगा, सौ प्याज भी खायेगा और संयम न होने के कारण शर्त हार कर सौ रुपये भी देगा।

5. अपरिग्रह

साधारण तौर पर प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भोजन, वस्त्र, मकान एवं अन्य जीवनोपयोगी आवश्यक साधन चाहिएँ। योग्यता व अधिकार के अनुसार कुछ अतिरिक्त साधनों की भी आवश्यकता होती है। यद्यपि आवश्यकता की सीमा बाँधी जानी चाहिए, पर योग्यता व अधिकार के अनुसार आवश्यकताओं की सीमा को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए चाहे राष्ट्रपति हो या चपरासी हो, उनके वस्त्रों की भिन्न-भिन्न सीमा निर्धारित की जा सकती है। योग्यता व अधिकार के अनुसार न्यून वा अधिक वस्त्रों की आवश्यकता होती है। अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नही है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र आदि एक जैसे व समान मात्रा में हो।

अपरिग्रह-पालन के लाभ

  1. अधिक संग्रह करने हेतु हम जिन झूठ-छल-कपट, अन्याय, ईर्ष्या, द्वेष आदि को न चाहते हुए भी करते हैं, उन सब से परे हो कर सत्य, न्याय, प्रेम से व्यवहार करने लगते हैं।
  2. आत्मशान्ति व तृप्ति मिलती है। मन प्रसन्न होता है।
  3. प्रभु दर्शन हेतु प्रयत्न बढ़ता है। व्यायाम, भक्ति, परिवार को समय देना आदि सभी कार्य कुशलता से हो जाते हैं।
  4. आत्म-चिन्तन करने का पर्याप्त काल मिलता है। जिससे आत्मदर्शन के अधिकारी बनते हैं।
  5. गौण विषयों से हटकर मुख्य विषयों में सरलता से अपनी शक्ति, सामर्थ्य आदि लगा कर शीघ्र ही चरम लक्ष्य अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
  6. आखिर इतना संग्रह किसके लिए करता हूँ? क्यों करता हूँ व कब तक करता रहूँगा? मैं कहाँ था? कब आया, क्यों आया? पहले का संग्रह कहाँ है? इस प्रकार के संग्रह से क्या होगा? कब तक संग्रह करूँ? इस प्रकार आत्मा का बोध होता है।
  7. भौतिक पदार्थों की नश्वरता का बोध होता है कि कोई भी वस्तु मेरे साथ सदा नहीं रह सकती, न ही कोई वस्तु मेरे साथ जा सकती है न आ सकती है।
  8. अपरिग्रह का पालन करने से अहिंसा में व्यापक वृद्धि होती है, जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर आनन्दित रह सकता है। समाज में आवश्यकताओं के अभाव से होने वाली अराजकता नष्ट हो जाती है।

अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरुद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं। यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।

प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो न्यूनतम आवश्यकता है वह सब तो अपरिग्रह के ही अन्तर्गत आती है,  क्योंकि अपरिग्रह का अर्थ ‘कुछ भी अपने पास न रखना’ करें तो यह अतिशयोक्ति मात्र  है, अपरिग्रह नहीं। इसलिये हमें विचारपूर्वक अपना नियमन स्वयं करना चाहिये कि कौन सी वस्तु हमारे लिये नितान्त आवश्यक है, हम केवल उसे ही रखें। इस तरह हम अहिंसा को अधिकाधिक पुष्ट करते हुए हिंसा से बच सकेंगे। तभी हमें ईश्वर साक्षात्कार एवं आत्मदर्शन होकर आत्मा की इच्छा को पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। ये सब कड़ियाँ हमारे जीवन के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं।

अनियंत्रित परिग्रह करने से आत्मा सदैव पाँचों प्रकार के दोषों के कारण भयभीत रहता है। भयभीत होने पर आत्मा मुक्ति की ओर उन्मुख नहीं हो सकता। ये दोष ही मुक्ति के द्वार को बंद करने वाले बड़े-बड़े पत्थर हैं। इन्हें हटाये बिना उसमें प्रवेश संभव नहीं।

जो हमारा पुरुषार्थ हमारे साथ जाना चाहिये, जो अदृष्ट के रूप में मुक्ति में सहायक बनना चाहिये वह व्यर्थ पदार्थों के संग्रह और रक्षण में ही व्यय हो रहा है। संग दोष से राग बढ़ता जाता है। याद रखिये कि जितना हम संग्रह करेंगे उतना ही हमारा मोह बढ़ेगा। मुक्ति के लिए मोह एक भयंकर शत्रु है। इन दोषों से युक्त संग्रह को हम जिन अपने प्रिय बेटे-बेटियों को सौंपते हैं, इससे हम उनका हित नहीं करते क्योंकि इस संग्रह के साथ जो पाँच प्रकार के दोष चिपके हुए हैं वे सब भी इस संग्रह के साथ उन प्रियजनों को प्राप्त होते हैं। अज्ञान के कारण हम इस संग्रह से अपने प्रियजनों का कल्याण नहीं कर रहे वरन् उनके नाश के बीज बो रहे हैं। यह बड़ी भूल करते हैं हम। इस संग्रह से उनका निश्चय से अकल्याण ही होगा। ‘वयं स्याम पतयो रयीणाम्’ के लक्ष्य को सामने रखकर हम न्यूनतम संग्रह करें। ताकि इन भौतिक पदार्थों के उपभोग से हम सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए मुक्ति के अपने प्रयास को भी निर्बाध रूप से करते रह सकें।

इस प्रकार सभी पक्षों पर सूक्ष्मता से दृष्टि रखते हुए हमें अपरिग्रह का पालन करना चाहिये ताकि हमारा सर्वांगीण विकास हो सके। ईश्वर ने जिस-जिस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु इन्हें बनाकर दिया, ये ऐश्वर्य जिस रूप में भोगने का निर्देश किया है, हमें उस सीमा का किञ्चित्मात्र भी अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यही अपरिग्रह है। ईश्वरेच्छानुसार अपरिग्रह होना चाहिये।

योग का दूसरा अङ्गनियम

1. शौच

बाहर की शुद्धि रखना आवश्यक है किन्तु इतना आवश्यक नहीं जितना कि अन्दर की शुद्धि रखना। बिना स्नान के चल सकता है परन्तु बिना मन की शुद्धि के नहीं। मन की शुद्धि के बिना शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, उपासना आदि नहीं हो सकते हैं।

शौचपालन के लाभ

(क)     बाह्य शुद्धि से-

  1. स्वयं व अन्यों के प्रति आसक्ति नहीं होती है।
  2. शरीर व अन्य वस्तुओं की नश्वरता का बोध होता है।
  3. नित्य पदार्थों के प्रति आकर्षण, प्रेम, श्रद्धा व लगाव उत्पन्न होता है।
  4. आत्म-तत्व के लिए अधिक समय मिलता है।

(ख)    आन्तरिक शुद्धि से-

मन प्रसन्न होता है। मन की प्रसन्नता से एकाग्रता, एकाग्रता से इन्द्रिजय, इन्द्रिजय से समाधि व समाधि में आत्मा व परमात्मा का दर्शन होता है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है।

सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गई है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए।

मनुष्य जीवन का एक प्रमुख आधार धन है। यह धन हृदय की भांति है। जिस प्रकार हृदय दूषित हो जाने से शरीर सुचारु से नहीं चल सकता, उसी प्रकार धन के दूषित होने से मनुष्य जीवन सुचारु रूप से नहीं चल सकता। इसी कारण महर्षि मनु ने स्वीकारा है कि सभी शुद्धियों में अर्थ अर्थात् धन की शुद्धि सर्वोत्कृष्ट है। धन को अशुद्ध रखते हुए अन्य पदार्थों की शुद्धि कितनी भी करें, मनुष्य अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता।

धन इसलिए दूषित होता है कि-

  1. धन को प्राप्त करने के लिए मानव हिंसा का आश्रय लेता है।
  2. धन को प्राप्त करने के लिए असत्य-झूठ को जीवन का अङ्ग बना लेता है।
  3. धन को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की चोरियाँ-जिसमें बिक्रीकर, आयकर आदि की चोरी भी शामिल है- करता है।
  4. धन प्राप्त करने के लिए व्याभिचार किया जाता है।
  5. व्यायाम, भक्ति, परोपकार, कर्तव्य-कर्म आदि को त्याग कर धनार्जन करता है।

मनुष्य का धन अशुद्ध है तो-

– उसका ज्ञान भी अशुद्ध होगा। जिसका ज्ञान अशुद्ध है उसकी आत्मा अपवित्र ही रहेगी।

– उसके कर्म अशुद्ध ही होंगे। अशुद्ध कर्म करने वाले की आत्मा मलिन ही होती है।

– उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी। जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने हेतु हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्दों को सहन करने का सामर्थ्य उत्पन्न नहीं होगा।

– उसका आहार अशुद्ध होगा। उस आहार से शरीर रोगग्रस्त ही रहेगा।

– उसे समय अर्थात् काल का बोध नहीं होगा। परिणामतः एक-एक पल का सदुपयोग नहीं कर सकता।

हमारा धन बिना क्रूरता, हिंसा व घिनोने कर्म के विशुद्ध रूप से अहिंसक धन बन सके। हमारा धन छल-कपट, ठगी, भ्रान्ति व झूठ रहित हो, वह पवित्र धन बन सके। हमारा धन दूसरों के खून व पसीने की कमाई न होकर स्पष्ट संवैधानिक चोरी रहित धन बन सके। हमारा धन स्त्री-मात्र को अपनी माता, बहन, पुत्री मानकर प्राप्त किया गया बन सके। हमारा धन सभी कर्तव्य कर्मों को करते हुए प्राप्त किया गया बन सके। ऐसी प्रक्रिया में हमारा मन प्रसन्न, शान्त, निर्मल, पवित्र बन पायेगा। जिससे आत्मा शुद्ध, पवित्र, निर्मल होकर अविद्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार से रहित होकर अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।

आज जिस तीव्रता से मानव ने धरती व आसमान को एक करके नवीन-नवीन साधनों का अविष्कार करके, शरीर को बाहर से सुन्दर व पवित्र बनाने का प्रयास किया। काश! ऐसा प्रयास अन्दर की शुद्धि के लिए किया होता, तो जीवन से बेचैनी, चिन्ता, तनाव, दबाव, अवसाद, अकर्मण्यता, चंचलता, हताशा, निराशा, क्रूरता, अमानवीयता आदि दूर होकर आन्तरिक पवित्रता आ जाती। आज मानव जीवन में जिस प्रकार काम, क्रोध्, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि का ताण्डव हो रहा है, यह सुनिश्चित करता है कि मानव ने अन्दर की शुद्धि को त्याग कर बाहर की शुद्धि पर ही ध्यान दिया है।

मानव अपने शरीर को बाहर से जितनी इच्छा, पुरुषार्थ, समय व धन खर्च करके शुद्ध व स्वस्थ रखने का यत्न कर रहा है, उससे अधिक इच्छा, पुरुषार्थ व समय देते हुए किन्तु कम धन खर्च करके शरीर को अन्दर से शुद्ध व स्वस्थ बनाने का यत्न करे तो अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।

2.संतोष

हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न करते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर, और अधिक पुरुषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरुषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्मदर्शन में अत्यन्त बाधक है।

सन्तोषपालन के लाभ

  1. अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है।
  2. मन शान्त, प्रसन्न, एकाग्र रहता है।
  3. अधिक पुरुषार्थ करने की प्रेरणा मिलती है।
  4. आत्म-विश्वास बढ़ता है।
  5. मन के विचार पवित्र रहते हैं।
  6. शरीर पर सुप्रभाव होता है जिससे व्यक्ति स्वस्थ रहता है। असंतोष के कुप्रभाव से बच जाता है।
  7. संतोष का पालन करने से अहिंसा पालन में वृद्धि होती है।

मनुष्य को सुखी करने में संतोष का महत्वपूर्ण योगदान है। सन्तोष के बिना जीवन दुःखमय बन जाता है। उपलब्ध ज्ञान, बल, सामर्थ्य व साधनों के अनुरूप कर्म अर्थात् पुरुषार्थ करने पर जो भी प्रतिफल न्यायोचित मिलता है उसी में खुश अर्थात् तृप्त रहने को सन्तोष कहते हैं। 

यदि मनुष्य अपनी विचार-शैली पर नियन्त्रण कर ले तो निश्चित रूप से सुखी हो सकता है। वह कैसे? क्योंकि हताश-निराश होने से जीवन सार्थक नहीं बन सकता। व्यक्ति इस प्रकार विचार करे कि जितनी योग्यता मुझ में है उसी के आधार पर प्रतिफल मिल पायेगा। अर्थात् अपने ज्ञान, बल, सामर्थ्य व उपलब्ध साधनों से जो मैंने कर्म किया उससे अधिक की इच्छा मैं कैसे कर सकता हूँ। यदि अधिक प्रतिफल की चाह करूँ तो अपनी योग्यता-ज्ञान को, बल को, सामर्थ्य को, साधनों को और अधिक बढ़ाऊँ। मेरी दृष्टि प्रतिफल पर तो जाती है परन्तु योग्यता पर क्यों नहीं? अपेक्षा के अनुरूप प्रतिफल न मिलने के पीछे कौन सा कारण है, यह विचारें। चाहे वह कारण अपनी न्यूनता हो, चाहे अन्यों की न्यूनता, कारण की इस गवेषणा में बुद्धि को न लगाकर हताश-निराश, हाय-हाय में बुद्धि लगाना क्या मेरी बुद्धिमत्ता है़?

मूढ़ता के कारण मनुष्य अपने मन को, बुद्धि को मात्र धन में लगा-लगाकर मन, बुद्धि की सात्विकता को दबाता जा रहा है। आज अल्प धन के जीवन को असफल ही माना जा रहा है। क्या यह उचित है? यदि उचित है, तो इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा क्यों नहीं दिखता, जिसमें पैसा-पैसा करते कोई पैसे से पूर्ण तृप्त हुआ हो।

संसार में ऐसे लोग भी होते हैं, जिनके पास न खाने-पीने को, न पहनने को, न रहने को पर्याप्त होता है, फिर भी वे सन्तुष्ट होते हैं। आज जिनके पास सब कुछ होता है, वे भी असन्तुष्ट होते हैं। इसके पीछे कहीं यह कारण तो नहीं है कि उनकी जीवन शैली अनुचित है, जीने की दृष्टि असंयमित है। संसार के वैभव का होना या न होना कोई मान्य नहीं रखता, मान्य रखता है मन की प्रसन्नता व आत्म-सन्तोष का होना। मन व आत्मा में तृष्णा बनी रहे तो कितना ही वैभव पास में हो, तो भी दरिद्रता ही मानी जायेगी और यदि तृष्णा ही समाप्त हो गयी हो, तो वैभव की न्यूनता में भी मनुष्य अर्थवान् अर्थात् धनवान् माना जायेगा।

जीवन शैली को समुचित रूप में चलाने के लिए सन्तोष अद्भुत उपाय है। जिसने भी सन्तोष को जीवन में धारण किया है। उसे अपार सुख मिला है और मिलेगा। यदि वर्त्तमान में भी पालन करे, तो वर्त्तमान में भी मिलेगा।

तुष्टिदोष का अर्थ है- मनुष्य अपनी इच्छा, प्रयत्न, बल, सामर्थ्य, ज्ञान व साधनों का पूर्ण प्रयोग न करके, कम प्रयोग करता हुआ स्वयं को धन्य मानता है।

मनुष्य को सन्तोष का पालन करते हुए यह सतत् बोध रखना पड़ता है कि मेरे जीवन में तुष्टि दोष तो नहीं आ रहा है।

यह न विचार कर लें कि इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान, बल व साधनों को बढ़ा देने से जीवन में असन्तोष उत्पन्न होगा। ऐसा कदापि न होगा। क्यों? यह ही योग का आश्चर्य है। क्योंकि योग मनुष्य को सदा ‘सम’ अर्थात् सन्तुलित बनाये रखता है। योगाभ्यास मनुष्य को न तुष्टि -दोष में धकेलता है और न ही असन्तोष उत्पन्न करता है।

जीवन में यदि असंतोष है तो यह असंतोष लोभ को व्यक्त करता है, लोभ से हम उस परम-सुख को नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। जब कभी हम लोभ करते हैं या लोभ करने की चेष्टा करते हैं तब इसीलिए करते हैं कि मेरे को वह परम-सुख चाहिए। यानि सुख के लिए लोभ किया जाता है। जबकि जिस सुख के लिए लोभ किया जा रहा है, उसी सुख अर्थात् परमानन्द से लोभ हमको दूर करता है। इस बात को समझने का प्रयत्न करना चाहिये।

मेरे को भोजन चाहिए, किसको नहीं चाहिए भोजन? लेकिन भोजन के लिए प्रवृत्त होते समय जब लोभ आ जाता है, तो वह प्रवृत्ति हमको परम-सुख से दूर पहुँचाएगी। यदि लोभ आ जाता है तो हो सकता है हम अधिक खा लें। आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने के लिए हमको अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़ेगा, यानि मन को अधिक क्रियाशील करना पड़ेगा। वाणी को भी अधिक क्रियाशील करना पड़ सकता है। शरीर से भी व्यक्ति अधिक क्रियाशील होगा। यानि लोभ के कारण से अनावश्यक अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़ता है। फिर वो लोभ उस परम-सुख से हमें दूर भी करवा रहा है।

जितना अपने पास है उसी में संतुष्ट रहना, अधिक की इच्छा नहीं रखना, इस बात को अच्छी तरह समझना होगा। मोटा उदाहरण है। मैं व्यापार करता हूँ, व्यापार के लिए मैंने जो कुछ भी सोचा कि इस साल में मेरे को इतना प्राप्त करना है। जब साल पूरा हो गया तो उतना प्राप्त नहीं किया, और जब प्राप्त नहीं किया तो मेरे मन में ये बात आती है। मैंने दस लाख का लक्ष्य बनाया था लेकिन दस लाख नहीं मिले, छः लाख मिले, चार लाख डूब गये मेरे, क्या करूँ चार लाख डूब गये। अब वह व्यक्ति असन्तुष्ट हो रहा है। चार लाख डूबे नहीं थे, वह उसने जो सोचा था उतना प्राप्त नहीं किया ये तो ठीक बात है, लेकिन बहुत कुछ प्राप्त भी किया, छः लाख तो मिल गये। अब यहाँ पर वह छः लाख को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो सकता था। सन्तुष्ट होना और लोभ को छोड़ देना, इन दोनों को थोड़ा सामने रखकर विचार करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा। और अधिक प्राप्त करने के लिए मना नहीं किया जा रहा। दोनों को इस तरह समझ सकते हैं। दस लाख प्राप्त करने के लिए लक्ष्य बनाया था वे नहीं मिले, छः लाख मिले। इसका अर्थ है इच्छा में कमी थी, पुरुषार्थ को और बढ़ाना चाहिए था, ज्ञान -विज्ञान के स्तर को और उन्नत करना चाहिए था, साधन और बढ़ाने चाहिएँ थे, तो दस लाख मिल सकते थे। इसलिए जो भी मिला उसमें संतोष करो क्योंकि वह आपके अनुरूप है, जितना आपने किया उसी के अनुरूप मिला है।

यदि हम इस तरह चलें तो संतोष का भी पालना होता रहेगा व लोभ भी हमारे अन्दर नहीं रहेगा और अधिक प्राप्त करने की चेष्टा निरन्तर करते जायेंगे।

यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी संतोष के सुख को मुक्ति जैसा सुख लिखते हैं, यानि मुक्ति में जैसा सुख मिलता है वैसा सुख संतोष का है।

संसार में जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं, सब कुछ उसकी सम्पत्तियाँ हैं जिसका मन सन्तुष्ट हो गया है, जिसके मन में लोभ नहीं है। जिसके मन में लोभ नाम की कोई चिड़िया नहीं है सारी दुनिया की सम्पत्तियाँ जैसे उसी की हैं।

संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।

3. तप

तपपालन के लाभ

  1. शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सामर्थ्य बढ़ता है।
  2. पहाड़ जैसे दुखों व समस्याओं का सामना करने का सामर्थ्य बढ़ता है।
  3. शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विश्वास बढ़ता है।
  4. आत्म-दर्शन व प्रभु-दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
  5. असंयम द्वारा दूसरों को कष्ट-पीड़ा-दुख नहीं देने से अहिंसा सुदृढ़ बनती है।

अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। आन्तरिक निर्मलता, आन्तरिक पवित्रता बिना तपस्या के नहीं हो सकती। संसार में रहते हुए जिन-जिन पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों के साथ हम जुड़े हुए हैं उनको छोड़ नहीं पाते हैं, उनका त्याग नहीं कर पाते हैं। त्याग की भावना हमारे में नहीं आ पा रही है जिसके कारण से हम तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। त्याग नहीं, अतः तपस्या नहीं।

तपस्या का विधान इसलिये किया है कि बिना तप के चित्त की अशुद्धि छिन्न-भिन्न नहीं हो पाती। अनादि काल से हम कर्म करते हुए आ रहे हैं, जो राग व द्वेष के कारण बन रहे हैं। राग या द्वेष से युक्त हो कर जिन कार्यों को हम कर रहे हैं वे हमको ईश्वर से दूर कर रहे हैं। क्लेशों के कारण जिन कर्मों को करते जा रहे हैं उनको करते हुए हमारे मन के ऊपर संस्कार पड़ते हैं, वे भी अनादि काल से पड़ते आ रहे हैं। हमें जिन संस्कारों को मिटाना चाहिये था। जिनको ज्ञान व विवेक रूपी हथौड़े से चोट मार-मार के नष्ट करना चाहिये था उनको और पुष्ट करते जा रहे हैं। खाने के, पीने के, देखने के, हर चीज के, पाँचों विषयों से सम्बन्धित संस्कारों को और पुष्ट करते जा रहे हैं। इतने अधिक संस्कारों को मिटाना हो तो वह बिना तपस्या के हो नहीं सकता।

जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोई मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।

कई बार हमकों ऐसा करना पड़ता है कि कोई वस्तु हमारे लिये लाभकारी होते हुए भी उसका त्याग करना पड़ता है।

यदि आप को पढ़ाई करनी हो तो आप सुख-सुविधाओं के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो आप पढ़ नहीं सकते। यदि आप योगार्थी बनना चाहते हो तो आपको सुख को त्याग करना पड़ेगा।

इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।

4. स्वाध्याय

शास्त्र दो प्रकार के होते हैं।

  1. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ज्ञान व जीवनयापन करने हेतु विभिन्न शास्त्र।
  2. आत्मा व परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र।

भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

स्वाध्याय करने के लाभ

  1. स्वाध्याय करने से जीवन में काम आने वाले पदार्थों का शुद्ध ज्ञान होता है।
  2. हानिकारक वस्तुओं से मिलने वाले दुखों से बचते हैं।
  3. लाभकारक वस्तुओं से मिलने वाले सुख का उपभोग कर सकते हैं।
  4. जीवन में सुखी, शान्त, प्रसन्न, तृप्त रहकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
  5. आत्मा व परमात्मा के दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
  6. स्वाध्याय माता के समान सतत् रक्षा करता है, हम पतन से बचे रहते हैं।
  7. एकाग्रता बढ़ती है। ईश्वर के प्रति प्रेम-श्रद्धा-रुचि बढ़ती है।
  8. स्वाध्याय से व्यक्ति में एक तरह का आलोक पैदा होता है, जिससे व्यक्ति संसार का हित व केवल हित ही करता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, संसार का हित करने के लिए व्यक्ति का स्वाध्याय से आलोकित होना परम आवश्यक है।
  9. स्वाध्याय से आलोकित हुआ व्यक्ति अन्यों की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान कर उन्हें परम लक्ष्य की ओर प्रेरित कर पाता है। 

‘स्वाध्याय’ शब्द की गहनता की ओर बढ़ने से पहले, आइए हम इस के मौलिक स्वरूप के बारे में जान लें। स्वाध्याय के दौरान हम अपने आस-पास की वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए जिन शास्त्रों को पढ़ते हैं, उनके प्रकाश में हमें स्वयं के आचरण को जाँचना होता है। स्वाध्याय से हमें दूसरों की कमियाँ नहीं, बल्कि अपनी कमियाँ दिखनी चाहिए। हमारे मन के केंद्र में दूसरों को ठीक करना नहीं, बल्कि अपने को ठीक करना होना चाहिए। जब हम दूसरों को नहीं, बल्कि अपने आप को जानने की दिशा में चलने लगें, तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम स्वाध्याय के मौलिक स्वरूप को जानने लगे हैं।

प्रणव आदि पवित्र वचनों-मंत्रों का जप करना व मोक्ष विषयक ग्रंथों को पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। परमपिता परमात्मा का मुख्य निज नाम प्रणव है। प्रणव क्या है? प्रणव ‘ओ३म्’ को कहते हैं। प्रणव शब्द से ओ३म् का ही ग्रहण होता है। ओ३म् का उच्चारण हम चाहे वाणी से करें चाहे मन से। जब हम उच्चारण करते हैं, तो अर्थ की भावना भी करें। जब अर्थ सामने न हो यानि ईश्वर सामने न हो, तब हम अपने मन को इधर-उधर अन्यत्र जिसमें हमारा प्रेम-आकर्षण होता है, लगाव होता है वहाँ ले जाते हैं, उस विषय के बारे में विचार करने लगते हैं। यदि ईश्वर को सामने उपस्थित रखते हैं तो इधर-उधर सोचने पर निश्चित रूप से हम ईश्वर के दण्ड से डरेंगे। जैसे- शिक्षक के सामने बैठकर एक बच्चा पढ़ता है। शिक्षक के सामने शिक्षक की उपस्थिति में अन्य कार्य नहीं करता। ना तो दूरदर्शन को चला सकता है, ना खेल सकता है, ना ही कुछ अन्य कार्यों को कर सकता है। तो शिक्षक के सामने जैसे बच्चा शब्द को बोलते हुए, अर्थ को समझते हुए, शिक्षक की अनुभूति सतत्  बनाए रखता है वैसे ही हमें जप के समय करना होता है। ईश्वर सर्वरक्षक है तो ऐसा सर्वरक्षक है। शक्तिशाली है तो ऐसा शक्तिशाली है। आन्दस्वरूप है तो ऐसा आनन्दस्वरूप् है, इसकी सतत् अनुभूति करते हुए जप करते जाना।

जप करने से आत्मा का साक्षात्कार होगा, परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार होगा। चेतन का अधिगम, चेतन की प्राप्ति, आत्मा की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं उसके साथ में एक महत्वपूर्ण बात और भी कही है, ‘अन्तरायाभावश्च’अर्थात जितनी भी बाधाएँ हैं, जितने भी विघ्न हैं, जिन के कारण से आज हम ईश्वर का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं, जप से उन सब विघ्नों को समाप्त किया जा सकता है।

स्वाध्याय के दूसरे अर्थ को बताते हुए महर्षि वेद व्यास जी लिखते है कि मुक्ति को दिलाने वाले शास्त्रों का अध्ययन करो। जब तक हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक हमें वह ज्ञान नहीं मिलेगा, जिस ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं।

व्याधि एक बड़ा जबरदस्त अन्तराय है, विघ्न है, बाधक है, रोड़ा है, जो हमको आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। व्याधि के कारण हम रुक जाते हैं। मुक्ति तो बहुत दूर की बात है, आदमी व्याधि के कारण अपने दैनिक कार्यों को भी ढंग से नहीं कर पाता। व्याधियों को दूर करने के लिए हमें जानकारी चाहिए। शरीर के एक-एक अङ्ग से सम्बन्धित जितने भी रोग उभर कर सामने आ रहे हैं, उन समस्त रोगों को मैं कैसे दूर कर सकता हूँ? उन रोगों की जानकारी हमें हो। वे रोग हमें ग्रस्त न करें, बाधा न करें, उसके लिए हमें जानकारी चाहिए। इसलिए स्वाध्याय करना होगा।

स्त्यान भी एक अन्तराय है, अकर्मण्यता, जी चुराना। उस अकर्मण्यता को दूर करना हो तो कितना ज्ञान चाहिए? मैं अकर्मण्य हूँ या नहीं हूँ, इसकी जानकारी पाने के लिए शास्त्रों से तुलना करनी पड़ेगी। शास्त्रों को पढ़ने से पता चलेगा कि मैं कर्मठ हूँ या अकर्मठ। संशय भी एक अन्तराय है। संसार में कितने संशय हैं, देखियेगा।

इस तरह एक-एक अन्तराय को दूर करने के लिए विचार करें, तो बहुत जानकारी हमको चाहिए। तो इस प्रकार से जप और शास्त्रों का अध्ययन दोनों को मिलाकर रखेंगे, तो इसका भी एक बहुत ऊँचा परिणाम है।

ओ३म् का, गायत्री मंत्र का, असतो मा सद्गमय का वा इसी तरह जो मंत्र, जो वाक्य, जो शब्द हमको ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं, जिनसे हम सबसे ज्यादा मन लगाकर ध्यान कर सकते हैं उन मंत्रों, उन वाक्यों, उन शब्दों का निरंतर जप करें और मोक्ष-शास्त्रों का अध्ययन करें। यह हमें मुक्ति की ओर ले जाने वाला है।

5. ईश्वरप्रणिधान

परिभाषा– मन, वाणी व शरीर से करने वाले समस्त कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करना, उन कर्मों का लौकिक अर्थात् सांसारिक फल न चाहते हुए मुक्ति की इच्छा रखना। प्रत्येक कर्म को करते हुए ‘ईश्वर मुझे देख, सुन व जान रहे हैं, मैं परमेश्वर की उपस्थिति में उपस्थित हो कर कर्म कर रहा हूँ’ ऐसी अनुभूति बनाये रखने को ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं।

इसको प्रारम्भ में बार-बार अभ्यास करके करना चाहिए।

ईश्वरप्रणिधान के लाभ

  1. ममत्व अर्थात् मैं और मेरे की भावना समाप्त हो जाती है।
  2. प्रत्येक जड़ व चेतन वस्तु में प्रभु का आभास होता है। जिससे सब के साथ समुचित व्यवहार कर पाते हैं।
  3. ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रत्येक कार्य को करने के कारण किसी प्रकार का अनुचित -पापकर्म नहीं होता । जिससे ईश्वर-प्रणिधान करने वाला व्यक्ति पूर्ण अहिंसक बनता है।
  4. ईश्वर-प्रणिधान करने वाले व्यक्ति को ईश्वर वरण कर अर्थात् चुन लेता है।
  5. प्रभु अपना दर्शन कराते हैं।

यदि कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, ईश्वर का दर्शन करना चाहता है तो उसकी विधि क्या होनी चाहिए, उसकी पद्धति क्या होनी चाहिए, किस तरह मनुष्य अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए, संसार में रहते हुए, ईश्वर को प्राप्त कर सकता है? योग के आठों अगों को समझाते हुए महर्षि पतञ्जलि जी ने अनेक उपाय ऐसे प्रस्तुत किये जिससे कि आत्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सके। ईश्वर प्रणिधान एक ऐसा उपाय है जिससे जीवात्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

जैसे छोटा सा बच्चा होता है, उसको जब हम काम कहते हैं, काम कराते हैं तो वो बारबार हमें देखता रहता है। ठीक करता हूँ? बताओं, ऐसे करूँ? बताओं, ऐसा करूँ? बताओ, ये ठीक है? बताइए, यहाँ रखना ठीक है? उसको हर बात बतायी जाती है, और वो ऐसे ही करता हुआ अपना कुछ मानता ही नहीं, और उसको कोई परेशानी भी नहीं होती, कोई तनाव नहीं होता, सारी जिम्मेदारी कराने वाले की होती है।

सब कुछ समर्पण कर दिया, स्वयं का कुछ नहीं रखा। मैंमैं नहीं रहा मैं आप हो गया, अब आप जो कहेंगे मुझे वैसा ही करना है। मेरा अस्तित्व होते हुए भी नहीं रहा, मैंने आपको ही समर्पित कर दिया। अब आपकी भक्ति अर्थात् आज्ञापालन में ही तत्पर रहूँगा। बतायें मुझे क्या करना है? यह है समर्पण। इस तरह यदि हम ईश्वरसमर्पण करेंगे तो निश्चित रूप से ईश्वर का दर्शन होगा, यही हमको करना है।

जब हम ईश्वरसमर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्तिपथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।

योग का तीसरा अङ्गआसन

 

आसन का बाह्य स्थूल रूप शारीरकि है, किन्तु यह आगे की मानसिक साधना धारणा, ध्यान, समाधि का आधार बनता है।

आसन की परिभाषा से शरीर की स्थिरता कही गई है एवं स्थिरता के साथसाथ बैठना सुखपूर्वक भी होना चाहिए, यह कहा गया है।

ध्यानात्मक आसनों की स्थिति में शरीर को सीधा रखना अर्थात् गर्दन, छाती कमर को सीधी रेखा में रखना होता है। शरीर को सीधा रखते हुए ढीलाशिथिल छोड़ना होता है। शरीर को अकड़ा कर नहीं रखना होता है।

यदि कोई व्यक्ति असमर्थ है, चाहे अवस्थाधिक्य के कारण या रोग के कारण, उसके लिए सोपाश्रय, पर्यङ्क जैसे आसनों का भी विधान किया है। 

महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित आसन का मुख्य उद्देश्य समाधि को प्राप्त करना है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ होते हैं, परन्तु कोई यह समझे कि आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना है। हाँ, बड़े लक्ष्य की पूर्ति के लिए छोटे लक्ष्यों को सामने रखकर चलें, तो कोई बाधा नहीं होगी। छोटे लक्ष्य को ही बड़ा अंतिम लक्ष्य मान लें तो उचित नहीं होगा। यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो प्रतीत होता है कि मनुष्य जो कोई भी उचित क्रिया करता है, जिस क्रिया को करने से उद्देश्य बाधित नहीं होता है, तो मानो वह क्रिया समाधि के लिए ही की जा रही है।

योग का चौथा अङ्ग – प्राणायाम

योग का चौथा अङ्ग प्राणायाम है। प्राण किसे कहते हैं? चारों वेद और ब्राह्मणों में प्राण को वायु भी कहा है। इस प्राण-अपान वायु के रोक देने का प्राणायाम कहते हैं। ये चार ही प्रकार के होते हैं। पहले इसके लाभ पर विचार करते हैं।

प्राणायाम करके दोषों को जला दो या नष्ट कर दो। दोष किसे कहते हैं? योगदर्शन पाँच प्रकार के दोषों का वर्णन करता हैं-

‘अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश’।

यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता। प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। मकान में लगायें तो मकान प्राप्त हो जाता है। अज्ञान के कारण परम्परागत रूप से मन दुनिया के राग-रंग में ही लगा रहा तो हम निरन्तर जन्म-मरण ही को प्राप्त होते रहेंगे। यदि हमें अपने लक्ष्य का ज्ञान हो जाये तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लें, किन्तु हमारी आज यह स्थिति बन ही नहीं पा रही है। इसलिये यदि आप वेदवर्णित लक्ष्य ‘मोक्ष’ प्राप्त करना चाहते हैं तो प्रकाशावरण को प्राणायाम के द्वारा नष्ट कर दीजिये। प्राणों को अधिकार में करने पर मन भी वश में आ जायेगा। वश में हुए मन को आत्मा में लगाने से ‘आत्म-साक्षात्कार’हो जायेगा। परमात्मा में लगाने से ईश्वर साक्षात्कार हो जायेगा।

हमारे शरीर में 600 खरब कोशिकाएं हैं। इन कोशिकाओं को प्राण से ही जीवनी-शक्ति मिलती है। इन समस्त कोशिकाओं को प्राणवायु की पूर्ण पूर्ति प्राणायाम से ही संभव है। यह प्रक्रिया सामान्य रूप से संभव नहीं है।

सभी रोगों को प्राणायाम द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। पूर्ण स्वस्थ रहने के लिए तो हमें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानना-समझना तथा जटिल रोगों में आयुर्वेद का आश्रय लेना अति आवश्यक है। यदि हम प्रारम्भ में श्वास-प्रश्वास वैज्ञानिक विधि अर्थात् प्राणायाम द्वारा लेना सीख जायें तो अच्छे स्वास्थ्य की नींव रखी जा सकती है।

शास्त्र कहता है कि प्राणायामों से इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। सात व्याहृतियों ओम् भूः, ओम् भुवः आदि प्राणायाम मन्त्र को तप पूर्वक अर्थात् थोड़ा-थोड़ा कष्ट सहन करते हुए बढ़ाते रहना चाहिये। कुछ लोग एक बार में ही बहुत बड़ा सामर्थ्य प्राप्त करने की चेष्टा में हानि उठा लेते हैं। इससे योग की कुख्याति भी होती है। इसलिये प्राणों को रोकने की अपनी सामर्थ्य थोड़ी-थोड़ी धैर्यपूर्वक बढ़ानी चाहिये। जब बढ़ा हुआ सामर्थ्य सामान्य प्रतीत होने लगे तो इसे और बढ़ा लेना चाहिये जिससे कि कष्ट की या तप की मात्रा घटे नहीं।

प्राणायाम करने से पूर्व कुछ महीने व्यायाम करना चाहिये। स्वामी दयानन्द ने कहा है कि जैसे वमन करने से पेट का समस्त भोजन झटके से बाहर निकल जाता है उसी प्रकार श्वास को बलपूर्वक बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दो। यदि हम ऐसा करें तो हमें निश्चित रूप से लाभ होगा। श्वास को झटके से बाहर निकालकर रोकने की विधि का उपयोग अपने सामर्थ्यानुसार ही करना चाहिये। हो सकता है कि आपके फेफड़े उस झटके को सहन न कर सकें और फेफड़ों के प्रकोष्ठ फट जायें। फिर तो बड़ी हानि होगी। इसलिये पहले कुछ महीने व्यायाम करके अपने श्वसन-तंत्र को दृढ़ बना लेना चाहिये ताकि वह उस झटके को सहन कर सके।

संसार में विद्या-प्राप्ति के अनेक केन्द्र दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि वहां पर योग्य अध्यापकों के द्वारा उन्हें उच्च शिक्षा प्रदान की जा रही है। ज्ञान विद्वान् के अधिकार में होता है। वह विद्वान् ही अपनी पढ़ाने की विशिष्ट शैली में छात्रों को ज्ञान हृदयङ्गम कराता है। फिर पता नहीं क्यों प्राणायाम जैसे सूक्ष्म विज्ञान को हम किसी योग्य व्यक्ति से सीखने का प्रयास न करके, किसी से भी सुनकर स्वयं ही उलटा-सीधा करने लग जाते हैं और लाभ की अपेक्षा हानि उठाने लगते हैं। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।

इसलिये किसी भी विद्या को सीखने के लिए ‘क्रिया एवं कारणं सिद्धेःʼ को मानना पड़ेगा। क्रिया को वही बता सकता है जिसे उसका अनुभव हो। प्राणायाम के प्रयोग द्वारा हमारा जीवन और अधिक लम्बा होगा। जीवन लम्बा होगा तो मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्नों के लिए अधिक समय प्राप्त होगा और हम अपने लक्ष्य के और अधिक निकट होंगे।

प्राणायाम एक मूल्यवान क्रिया है। इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। गंभीर योग-साधक हो या प्रारंभिक योगाभ्यासी, शारीरिक स्वास्थ्य का इच्छुक हो या मानसिक स्वास्थ्य का, बालक हो या वृद्ध, युवा हो या प्रौढ़, स्त्री हो या पुरुष, बुद्धिजीवी हो या श्रमजीवी यह सबके लिए महत्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है।

प्राणायाम के शारीरिक लाभ भी बड़े व्यापक हैं। व्यक्ति स्वस्थ तभी कहलाता है जब शरीर की सभी प्रणालियाँ सामंजस्य पूर्वक समुचित रीति से कार्य कर रही हों।

शरीर की स्वस्थता का सुप्रभाव मन-बुद्धि पर भी बहुत अधिक पड़ता हैं। प्राणायाम हमारे शरीर के सभी तंत्रों अर्थात् SYSTEMS को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है।

आध्यात्मिक प्रगति के एक मुख्य बाधक ‘अज्ञान-अविवेक’का क्षय प्राणायाम से होता है। आध्यात्मिक प्रगति के एक मुख्य साधन ‘धारणा’ लगाने की मानसिक क्षमता प्राणायाम से बढ़ती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है। प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है।

प्राणायाम के लिए आवश्यक निर्देश

  1. प्राणायाम पेट एवं बड़ी आंतें खाली होने पर ही करना चाहिए।
  2. भोजन के न पचने, मल त्याग न होने पर प्राणायाम न करें।
  3. प्राणायाम करने का उपयुक्त काल प्रातः काल है।
  4. यदि आहार पच गया हो व मलशुद्धि हो गई हो तो सायं-काल भी कर सकते हैं।
  5. भोजन करने के कम से कम 4-5 घण्टों के उपरान्त ही प्राणायाम करना चाहिए।
  6. स्नान करने के बाद प्राणायाम करना अधिक उपयुक्त हैं।
  7. वस्त्र ऋतु के अनुरूप एवं ढीले होने चाहिएँ।
  8. प्राणायाम का स्थान शुद्ध, एकान्त, वायु के गमनागमन वाला हो। प्राणायाम जिधर से वायु का आगमन हो रहा हो उधर मुख करके करना चाहिए।
  9. अपनी अवस्था (बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध) को देखकर प्राणायाम करें।
  10. बालक, किशोर एवं वृद्ध समान अर्थात् अल्प से मध्यम मात्रा में अर्थात् 3 से 10 प्राणायाम कर सकते हैं।
  11. युवा व प्रौढ़ एक समान अर्थात् मध्यम से पूर्ण मात्रा में अर्थात् 11 से 21 प्राणायाम कर सकते हैं।
  12. शरीर के सामर्थ्य को देखकर प्राणायाम करें।
  13. कम से कम तीन प्राणायाम हर अवस्था वाले एवं स्त्री-पुरुष सब कर सकते हैं।
  14. इक्कीस प्राणायाम से अधिक न करें।
  15. प्राणायाम की संख्या प्रमुख नहीं है। विधि एवं शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव प्रमुख हैं। अतः विधि व कुशलता पर विशेष ध्यान देवें।
  16. प्राणायाम करते समय शरीर भारी बने, या सिर दर्द होने लगे, चक्कर आने लगे, तो प्राणायाम न करें।
  17. अत्यन्त दुर्बल अवस्था, रोग (ज्वर आदि) अवस्था में प्राणायाम न करें।
  18. प्राणायाम करने वालों के भोजन में सभी तत्व (विटामिन, खनिज, लवण, प्रोटीन, चिकनाई आदि) होने चाहिएँ।
  19. शीत ऋतु में अधिक, ग्रीष्म ऋतु में कम मात्रा में एवं वर्षा ऋतु में बीच की मात्रा में प्राणायाम करना चाहिए।
  20. बुद्धिनाशक, मदकारी व तामसिक पदार्थों (शराब, अफीम, ब्राउन शुगर, ड्रग्स, पेप्सी आदि) का सेवन न करें।
  21. नये व्यक्ति को प्रारम्भ में प्रथम प्रकार का प्राणायाम (बाह्य प्राणायाम) ही करना चाहिए। अभ्यास करते हुए बाद में दूसरे व तीसरे प्रकार के प्राणायाम (आभ्यन्तर व स्तम्भवृत्ति प्राणायाम) कर सकते हैं।
  22. प्राणायाम नथुनों के माध्यम से ही करें। मुख से न करें।
  23. प्राणायाम करते समय हाथ से नथुनों को बन्द करने का प्रयास सर्वथा न करें। हाथ से पकड़े बिना, मात्र संकल्प से करें।
  24. अच्छे प्रशिक्षक से सीख कर ही प्राणायाम करें।
  25. एक बार प्राणायाम को करके तत्काल दूसरी व तीसरी बार करना नये व्यक्ति के लिए कठिन होता है। अतः एक बार करके 3-4 सामान्य श्वास-प्रश्वास ले लेवें। पुनः अगला प्राणायाम करें।
  26. निरन्तर अभ्यास व कुशलता की स्थिति में प्राणायाम लगातार कर सकते हैं।
  27. प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। मन को प्राण के साथ जोड़कर, प्राणों को अपने अधिकार में करने हेतु भावना एवं प्रभु से यह प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हों। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो।
  28. प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोक कर आत्मा व परमात्मा में लगाना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रख कर प्राणायाम करें।
  29. प्राणायाम के काल में परमेश्वर का जप व ध्यान सतत्करते रहें।

प्राणायाम करते समय प्रभु का ध्यान

मन को अपने शरीर के किसी एक स्थान-मस्तक, भ्रूमध्य, नासाग्र, जिह्वाग्र, कण्ठ, हृदय अथवा नाभि में लगा कर वहाँ पर स्थित परमेश्वर के साथ आबद्ध होना है। वहीं पर पवित्र ओम् आदि शब्द अथवा गायत्री आदि मन्त्रों अथवा असतो मा सदगमय आदि वाक्यों से जप करना है। उच्चारण के साथ अर्थ को समझते हुए प्रभु को अपने समक्ष सतत् उपस्थित स्वीकार करना है। प्रभु में ही एकाग्र होना है। साथ में ईश्वर से सतत् प्रार्थना करनी है कि हे दुःख हर्ता! मेरे त्रिविध दुःखों को दूर कर मुझे मोक्ष-सुख की ओर ले चलो। मेरे समस्त विकारों (राग, द्वेष आदि) को दूर करके मुझे प्रेम, दया, उपकार, आत्मीयता आदि शुभ गुणों की प्राप्ति करा दो। मुझ को मृत्यु से छुड़ा दो, अपने अमृत का पान करा दो।

प्राणायाम करने की विधि

  1. बाह्य प्राणायाम

विधि-किसी एक आसन (सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन या सामान्य पालथी) में बैठ जावें। कमर, छाती, गर्दन व सिर को सीधी रेखा में रखें। दोनों हाथों को एक मुद्रा (ज्ञान-मुद्रा अर्थात् अंगूठे तथा तर्जनी को गोल बनाते हुए दोनों के अग्रभाग को मिलाके रखें। स्पर्श कोमल रखें कठोर बनाकर न रखें। बाकी अंगुलियों को मिला के सीधा करके रखें। मुद्रा बनाकर हथेलियों को ऊपर आकाश की दिशा में करके हाथ को घुटनों के ऊपर रखें वा द्रोण-मुद्रा अर्थात् हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाएँ। हथेली के बीच में गड्ढ़ा-सा बनायें। हथेली कटोरा- सी लगे। अब हथेलियों को भूमि की ओर मोड़कर घुटनों के ऊपर रखें।) बना कर घुटनों के ऊपर रखें। शरीर को अच्छी प्रकार स्थिर व एकाग्र करें। धैर्य एवं उत्साह से श्वसन-तन्त्र के नियम के अनुसार अन्दर के प्राण को धीरे-धीरे बाहर निकालें। पूरा प्राण बाहर निकाल कर, प्राण को बाहर ही रोके रखें। जालन्धर-बन्ध, (ठोड़ी को छाती के साथ), उड्डीयान-बन्ध,  (पेट को अन्दर ले जावें) और मूल-बन्ध (गुदा इन्द्रिय को ऊपर खींच कर रखें) लगाकर  यथासामर्थ्य प्राण को बाहर रोके रखें। सामर्थ्य पूरा हो (थोड़ी घबराहट-बेचैनी होने तक) जाये तो तीनों बन्धों को (पहले मूलबन्ध को फिर उड्डीयान-बन्ध  को तथा फिर जालन्धर बन्ध को) छोड़े। धीरे-धीरे बाहर के प्राण को श्वसन-तन्त्र के नियम के अनुसार ही अन्दर लेवें। सामन्य स्थिति में आ जावें। तीन-चार बार श्वास-प्रश्वास ले कर पुनः ऐसा ही करें। इस प्रकार कम से कम तीन बार अवश्य करें। लम्बे अभ्यास के द्वारा संख्या को बढ़ा सकते हैं।

नोट– ये विचार स्वामी विष्वङ्ग जी की पुस्तक ‘योग’ से लिए गए हैं। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा हुआ है कि ये बन्ध ‘योग दर्शन’ या उसके ऋषि-कृत भाष्य में उल्लेखित नहीं हैं। परन्तु, क्योंकि ऋषि दयानन्द जी ने बाह्य प्राणायाम में मूलबन्ध से होने वाले लाभ का उल्लेख किया है, इसलिए उन्होंने दूसरे दो बन्धों को भी बाह्य प्राणयाम के दौरान करने की बात लिखी है। हालाँकि, स्वामी विष्वङ्ग जी स्वयं बहुत उच्च कोटि के विद्वान हैं, परन्तु फिर भी अन्य विद्वानों की मान्यता है कि क्योंकि ‘योग दर्शन’ में महर्षि पतंजलि ने किसी बन्ध का विधान नहीं किया व ऋषि दयानन्द जी ने बाह्य प्राणायाम के दौरान केवल मूलबन्ध का ही विधान किया है, इसलिए उड्डयान बन्ध व जालंधर बंध को बाह्य प्राणायाम करते समय नहीं लगाना चाहिए। 

सावधनियाँ

  1. जब प्राण अन्दर लेना चाहते हैं, तो पेट को कुछ बाहर की ओर करें, इस समय तनुपट (डायाफ्राम) नीचे की ओर खिसकेगा। तब प्राण को भरते जाएँ एवं छाती को फुलाते जाएँ। छाती को फुलाते समय पेट की ओर ध्यान न दें अर्थात् उस समय पेट बाहर की ओर न निकालें। छाती को फुलाते ही हंसली ऊपर उठेगी। इसी स्थिति में प्राण को अच्छी तरह व अधिक अन्दर भर सकते हैं। यदि ऐसा न करें तो प्राण अन्दर कम ही जा पायेगा। इसी प्रकार अन्दर स्थित प्राण को बाहर निकालना हो, तो ठीक उससे विपरीत स्थिति होगी कि पहले छाती को ढ़ीला छोड़ देवें। हंसली अपने स्थान पर आ जाएगी तथा पेट को अन्दर कर लेवें, जिससे तनुपट अपने स्थान पर आ जाएगा। इस स्थिति में अन्दर के अशुद्ध प्राण को अधिक से अधिक बाहर निकाल पाएंगे।
  2. नथुनों से ही प्राण को बाहर निकालें व अन्दर भरें, मुख से नहीं।
  3. त्रिविध बन्ध लगाने के प्रयास में प्राणायाम विधि का त्याग न करें।
  4. जो व्यक्ति 1 मिनट में 15 से 18 बार तक श्वास-प्रश्वास लेते हैं, वे कुछ तीव्रता से प्राण को बाहर निकाल सकते हैं। जो व्यक्ति 1 मिनट में 18 से अधिक बार श्वास-प्रश्वास लेते हैं, वे धीरे-धीरे ही प्राण को बाहर निकालें।
  5. प्राण को अन्दर लेते समय सभी को धीरे-धीरे ही लेना चाहिए।
  6. प्राण अन्दर लेते समय प्रायः धैर्य छूट जाता है। तेजी के साथ प्राण को अन्दर खींचते हैं। ऐसा बिल्कुल न करें।
  7. जबरदस्ती न करें। अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगा कर विधि में शक्ति लगावें, कुशलता के प्रति ध्यान देवें।
  8. प्राणायाम के काल में निरन्तर मन्त्र ओम् भू: (ईश्वर प्राणाधार है), ओम् भूव: (ईश्वर दुखों को हरने वाला है), ओम् स्व: (ईश्वर सुख देने वाला है) ओम् मह: (ईश्वर महान है), ओम् जन: (ईश्वर सृष्टि कर्त्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।), ओम् तप: (ईश्वर दुष्टों को दुख देने वाला है), ओम् सत्यम् (ईश्वर अविनाशी सत्य है) का अर्थ सहित जप करें।
  9. मन को पूर्ण अधिकार में रखने का सतत्प्रयास करें।
  10. अधिकृत मन को आत्मा व परमात्मा में लगावें।
  11. अपने जीवन के उद्देश्य को सामने रखें।
  12. निरन्तर अभ्यास करते हुए ही समय की अवधि को बढ़ावें।
  13. किसी भी ऋतु में कर सकते हैं।

2. आभ्यन्तर प्राणायाम

विधि- बाह्य प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। बाहर के प्राण को धीरे-धीरे लयबद्ध क्रम से अन्दर लेते जावें। जितना भर सकते हैं, उतना पूरा भर कर अन्दर ही रोके रखें। सामर्थ्य पूरा हो (थोड़ी घबराहट -बेचैनी होने तक) जाये, तो धीरे-धीरे लयबद्ध क्रम से प्राण को बाहर निकालें। तीन-चार बार सामान्य श्वास-प्रश्वास लेवें। पुनः ऐसे ही प्राणायाम करें। कम से कम तीन बार करें।

नोट– अन्य विद्वानों की मान्यता है कि  किसी भी प्राणायाम के दौरान कोई भी बन्ध नहीं लगाना चाहिए। 

सावधानियाँ

  1. बाह्य-प्राणायाम की सावधनियाँ आभ्यन्तर-प्राणायाम में भी समझ लेवें।
  2. इसमें प्राण को लेते समय व निकालते समय धीरे-धीरे ही लेना व निकालना है।
  3. इस प्राणायाम में एक ही बन्ध (जालन्धर बन्ध) लगा सकते हैं।
  4. ग्रीष्म ऋतु में अधिक न करें।
  5. बाह्य प्राणायाम की अपेक्षा इस प्राणायाम में प्राण को अधिक काल तक अन्दर रोक सकते हैं।

 

3. स्तम्भवृत्ति प्राणायाम

विधि- बाह्य प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। अपने मन को दोनों नथुनों के मध्य में लगावें। निरन्तर चलने वाले श्वास-प्रश्वास  की अनुभूति करें। अनुभूति होगी कि श्वास के द्वारा प्राण अन्दर जा रहा है व प्रश्वास के माध्यम से बाहर निकल रहा है। अन्दर जाता हुआ प्राण अपेक्षाकृत ठण्डा लगेगा, बाहर निकलता हुआ प्राण अपेक्षाकृत गरम लगेगा। श्वास-प्रश्वास की गति का अनुभव अच्छी तरह हो जावे, तो अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर ही रोके रखें। अन्दर से बाहर निकलने वाले प्राण को बाहर न निकलने देवें। बाहर से अंदर आने वाले प्राण को अंदर न लेवें। यथासामर्थ्य रोक कर छोड़ देवें। कुछ क्षण सामान्य श्वसन करते रहें, पुनः द्वितीय बार इसी प्राणायाम को करें। इस प्रकार कम से कम तीन बार प्राणायाम करें।

सावधानियाँ

  1. बाह्य-प्राणायाम के समान जप आदि मन में चलता रहे।
  2. जबरदस्ती न करें।
  3. किसी भी ऋतु में कर सकते हैं।
  4. मार्ग में आते-जाते हुए दुर्गन्ध आदि की स्थिति में भी इस प्राणायाम को करके अशुद्ध वायु से बचा जा सकता है।
  5. बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी प्राणायाम

विधि- बाह्य-प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। बाह्य-प्राणायाम की विधि के अनुसार प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही रोके रखें। त्रिविध-बन्ध न लगावें। सामर्थ्य पूरा हो जावे, तो बाहर से प्राण को अन्दर न लेवें। बल्कि धक्का दे कर अन्दर बचे हुए प्राण को बाहर निकाल कर बाहर रोके रखें। कुछ देर बाद पुनः अन्दर लेने की इच्छा हो तो अन्दर न ले कर पुनः बाहर धक्का दे कर बाहर ही रोके रखें। इस प्रकार एक, दो, तीन बार करने के उपरान्त प्राण को धीरे-धीरे लायबद्ध क्रम से अन्दर लेवें। पूरा भर कर फिर अन्दर ही रोके रखें। सामर्थ्य के अनुसार रोक कर बाहर निकालने की इच्छा हो, तो बाहर न निकालें। बल्कि बाहर से प्राण को और अन्दर भर कर अन्दर ही रोके रखें। कुछ देर बार पुनः बाहर निकालने की इच्छा हो जाये तो बाहर से प्राण को और भर लेवें। इस प्रकार एक, दो, तीन बार करके धीरे-धीरे प्राण को बाहर निकालें। सामान्य स्थिति में आ जावें। अपने सामर्थ्य के अनुसार इस प्राणायाम को एक बार, दो बार या तीन बार तक करें।

सावधानियाँ

  1. यह प्राणायाम अत्यन्त कठिन व परिश्रम साध्य है।
  2. वर्षों के अभ्यास से सम्भव है।
  3. पहले क्रम से प्रथम तीन प्राणायामों (बाह्य, आभ्यन्तर, स्तम्भवृत्ति) का अभ्यास वर्षों तक कर कुशलता को प्राप्त करके चौथा प्राणायाम करना चाहिए।

चारों प्राणायामों के लाभ

  1. प्राणायामों का प्रमुख लाभ मन की पूर्ण एकाग्रता है, मनोनियन्त्रण है।
  2. एकाग्र हुए मन को आत्मा व परमात्मा में लगा कर आत्म-दर्शन एवं प्रभु-दर्शन कर पा सकना।
  3. मन को एकाग्र व अपने अधिकार में करने से नाड़ी -तंत्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम सुव्यवस्थित होता है।
  4. श्वसन-तन्त्र अर्थात् रेस्पिरेटरी सिस्टम सुव्यवस्थित होता है।
  5. शरीर के मुख्य तंत्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम के व्यवस्थित होने से अन्य तन्त्र (पाचन तन्त्र, रक्त परिसंचरण तंत्र आदि) भी प्रभावित होते हैं, वहाँ के विकार दूर होते हैं।
  6. बुद्धि, स्मृति, बल, पराक्रम, ओज, आत्मविश्वास, उत्साह बढ़ते हैं।
  7. इन्द्रियों का संयम बढ़ता है।
  8. ज्ञान का विकास होता है, ज्ञान की सूक्ष्मता बढ़ती है, अज्ञान दूर होता है।
  9. सूक्ष्म तत्वों को समझने का सामर्थ्य बढ़ता है।
  10. ब्रह्मचर्य का पालन होता है।
  11. शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है।
  12. शरीर में स्फूर्ति रहती है।
  13. आलस्य-प्रमाद दूर होता है।

 

योग का पांचवा अङ्ग – प्रत्याहार

प्रत्याहार अर्थात आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को संसार के विषयों में जाने से रोकने को सिद्ध किए बिना हम अपने मन को पूर्णतया परमात्मा में नहीं लगा सकते।

प्रत्याहार के लाभ

  1. इन्द्रियजित अर्थात् इन्द्रियों को जीतने वाला बन जाते हैं।
  2. विषय भोगों में नहीं फंसते हैं।
  3. अपनी इच्छा से इन्द्रियों को जहाँ लगाना चाहें लगा सकते हैं।
  4. पूर्ण एकाग्रता से ध्यान कर सकते हैं।
  5. आत्म दर्शन के अधिकारी बन जाते हैं।

योग का छठा अङ्ग – धारणा

धारणा में शरीर के जिस स्थान पर मन को टिकाया जाता है, उसको महसूस करना होता है। माथे पर आँखों के मध्य में धारणा करना आसान होता है, इसलिए प्रारम्भ में इस स्थान का प्रयोग 5-7 मिनट के लिए किया जा सकता है। परन्तु क्योंकि इस स्थान पर दर्द आदि की सम्भावना होती है, इसलिए शरीर के अन्य स्थानों पर ही धारणा करनी चाहिए।
ध्यान के समय मन को किसी स्थान पर टिकना भी होता है, साथ ही साथ किसी शब्द या मंत्र का उच्चारण भी करना होता है और उस शब्द अथवा मंत्र के अर्थ पर भी चिन्तन करना होता है। ध्यान में इतनी सारी चीजों को करना असम्भव सा प्रतीत होता है, परन्तु कुछ समय के अभ्यास के पश्चात इन सारी बातों को एक साथ करना बहुत सहज हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ समय के अभ्यास के पश्चात साईकिल चलाने के साथ-साथ मोबाईल पर बात करने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती।

धारणा के लाभ

  1. मन एकाग्र होता है।
  2. मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है।
  3. मन की मलिनता का बोध अर्थात् परिज्ञान होता है।
  4. मन के विकारों को दूर करने में सफलता मिलती है।
  5. ध्यान की पूर्व तैयारी होती है।
  6. ध्यान अच्छा लगता है।

निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –

  1. मन जड़ है को भूले रहना
  2. भोजन में सात्विकता की कमी
  3. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
  4. ‘ईश्वर कण – कण में व्याप्त है’ को भूले रहना
  5. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना
  6. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना

इस प्रकार अनेकों कारण हैं, जिन से मन धारणा स्थल पर टिका हुआ नहीं रह पाता। इन कारणों को प्रथम अच्छी तरह जान लेना चाहिए, फिर उनको दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन एक स्थान पर लम्बी अवधि तक टिक सकता है।

प्रारम्भिक योग साधक को चाहिए कि वह ध्यान के काल में बीच-बीच में धारणा स्थल का बोध बनाए रखे। जिससे भटकना न हो पाये। योग-साधक को यह भी चाहिए कि जितने धारणा स्थल हैं उनमें धारणा करने का अभ्यास बना लेवे, जिससे यदि कभी एक धारणा स्थल पर सफलता न मिले तो अन्य धारणा स्थल पर सफलता पूर्वक धारणा लगा सके।

योग-साधक को अपनी बुद्धि में यह बात भी अवश्य बिठा लेनी चाहिए कि बिना धारणा बनाये ध्यान समुचित रूप में नहीं हो सकता।

योग का सातवां अङ्ग – ध्यान

परिभाषा-शरीर के अन्दर मन को एक स्थान (धारणा स्थल) पर टिका करके किसी परोक्ष वस्तु यथा प्रभु का दर्शन अर्थात् प्रत्यक्ष करने के लिए निरन्तर चिन्तन करने, बीच में अन्य किसी का चिन्तन न करने को ध्यान कहते हैं।

ध्यान के काल में वैज्ञानिक के समान सूक्ष्म बुद्धि होकर परोक्ष वस्तु को प्रत्यक्ष करने की सुव्यवस्थित ज्ञान रूपी धारा निरन्तर चलती है। तब सर्वाधिक सचेत-सावधान रहते हुए अधिकाधिक ज्ञान को सूक्ष्मता से प्राप्त किया जाता है।

ध्यान के लाभ

  1. ध्यान से उच्च एकाग्रता की प्राप्ति होती है।
  2. सर्वाधिक ज्ञान होता है अर्थात् पूर्ण विवेक होता है।
  3. सूक्ष्मता से सत्य का बोध होता है।
  4. सूक्ष्मता से उचित -अनुचित का विश्लेषण करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है।
  5. कम समय में अधिक कार्य करके अधिक उपलब्धि को प्राप्त कर सकते हैं।
  6. मन को जहाँ चाहें वहाँ एकाग्र करके अपने उत्तम कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं।
  7. बौद्धिक, मानसिक कार्यों को सरलता से कर सकते हैं।
  8. जीवन में कभी हताश-निराश न हो कर सदा उत्साही, निडर रहते हैं।
  9. वैज्ञानिक बनने का सर्वोत्तम उपाय है।
  10. मन को शुद्ध कर अच्छे कर्मों में प्रवृत्ति और बुरे कर्मों से निवृत्ति होती है।
  11. प्रभु-दर्शन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
  12. काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से रहित हो जाते हैं।
  13. मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है।
  14. रक्तचाप अर्थात् बी.पी. हृदय रोग आदि नहीं होते हैं।
  15. नाड़ी तन्त्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम सुव्यवस्थित रहता है।
  16. नाड़ी तन्त्र के ठीक हो जाने से शरीर के अन्य तन्त्र अर्थात् श्वसन, पाचन आदि भी सुव्यवस्थित हो जाते हैं।
  17. जीवन में तनाव अर्थात् टेंशन, अवसाद अर्थात् डिप्रेशन आदि भयानक रोग नहीं होते हैं।

प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा पाते हैं।

इस विकट परिस्थिति को समक्ष रखते हुए सब जन उत्तम रीति से ध्यान कैसे करें? इस प्रक्रिया को यहाँ पर दिया जा रहा है।

बाह्य -सज्जा

ध्यान के अनुरूप शान्त, एकान्त, स्वच्छ स्थान का चयन करें। समय व स्थान को निश्चित रखें, इससे लाभ होता है। वस्त्र स्वच्छ, ढीले व अनुकूल हों। बिछौना सम-न मृदु, न कठोर न ऊँचा, न नीचा हो। निद्रा, विश्राम, शौच, स्नान आदि के बाद हल्के-फुलके चुस्त शरीर व शान्त-एकाग्र मन से ध्यान के लिए बैठें। ध्यान काल में आने वाली सम्भावित बाधाओं यथा मक्खी, मच्छर, शीत, उष्ण, ध्वनि (दूरभाष की घण्टी, प्रैशर-कुकर की सीटी, द्वार की घण्टी आदि), बच्चे, परिजन आदि का समाधान करके बैठें। आकस्मिक दुर्घटना, आपात्काल या कार्य विशेष हो तो पहले उससे निवृत हो लेवें, फिर ध्यान करें।

आन्तरिक-सज्जा

ध्यान करने वालेक प्रत्येक योगाभ्यासी को निम्नलिखित चार बिन्दुओं का अनुसरण करना चाहिए, जिससे ध्यान सम्बन्धी समस्त अवरोध दूर होकर मन पूरी तरह परमात्मा में लग सके।

पहला बिन्दु

प्रत्येक योगाभ्यासी प्रातः काल उठने से लेकर रात्रि में सोने पर्यन्त प्रत्येक कार्य को करते समय अपना उद्देश्य यह बनावे कि मैं जो कार्य कर रहा हूँ, और जो भी करूँगा, वह परमात्मा को प्राप्त करने का साधन बने। उसे विचार से, अनुचित वाणी से, अनुचित व्यवहार से बचना चाहिए। इसके परिणास्वरूप मन दिनभर प्रसन्न रहता है। प्रसन्न मन एकाग्र होता है। एकाग्र मन परमात्मा में लग जाता है।

दूसरा बिन्दु

प्रत्येक योगसाधक को चाहिए कि जैसे-जैसे ध्यान का समय निकट आता है, वैसे-वैसे अपनी मानसिकता बना ले कि मुझे ध्यान की अमुक-अमुक तैयारी करनी है, जिससे मैं ध्यान को निर्विध्न सम्पन्न कर सकूँ।

तीसरा बिन्दु

उपासक ध्यान में बैठने से पूर्व निम्नलिखित मानसिक तैयारी करके बैठे –

  1. मैं शरीर से अलग हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ। मैं आत्म -बोध बनाये रखते हुए ध्यान करूँगा।
  2. समस्त सांसारिक सम्बन्धों को त्याग करके ही ध्यान में बैठूँगा, जैसे कि मेरे कोई माता-पिता, पति-पत्नी आदि हों ही नहीं।
  3. मैं और मेरेपन अर्थात् स्व-स्वामी सम्बन्ध को त्याग करके ध्यान करूँगा।
  4. मैं एकदेशी-एक स्थान पर रहने वाला अर्थात् व्याप्य हूँ और ईश्वर सर्वव्यापक है।
  5. ईश्वर को अपने समक्ष उपस्थित स्वीकार अर्थात् ईश्वर-प्रणिधान करते हुए ही ध्यान करूँगा।
  6. ईश्वर को तुम (मध्यम पुरुष) कहकर साक्षात् सम्बोधित करूँगा।

चौथा बिन्दु

प्रत्येक भक्त को चाहिए कि वह ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व निम्नलिखित बातों को समझ कर ध्यान के काल में भी बीच-बीच में अनुभूति बनाए रखे।

  1. मैं जीवात्मा ध्यान करने वाला हूँ-साधक हूँ-ध्याता हूँ।
  2. मैं जिस मन से ध्यान करता हूँ, वह मेरा साधन है। मेरा मन जड़ है, चेतन नहीं है। मेरे चलाये जाने पर ही चलता है। मन स्वयं नहीं चलता। मन सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण इन जड़ तत्त्वों से बनता है। मन एक प्राकृतिक अर्थात् प्रकृति से बना हुआ पदार्थ है।
  3. रचना में सत्वगुण की अधिक मात्रा होने से मन स्वतः सात्विक है, शान्त है। ऐसा महर्षि वेदव्यास ने लिखा है।
  4. मैंने अपनी अज्ञानता से मन को चंचल बनाया है।
  5. मैं स्वयं तमोगुण व रजोगुण के प्रभाव को दबा कर सत्वगुण को उभारने वाला हूँ।
  6. मन को सात्विक बना कर ही ध्यान करूँगा।
  7. ईश्वर मेरा ध्येय अर्थात् ध्यान का लक्ष्य है। मैं ईश्वर का ही ध्यान करूँगा।
  8. ध्यान के काल में भूल कर भी संसार का चिंतन नहीं करूंगा।
  9. मैं संकल्प लेकर ही ध्यान प्रारम्भ करूँगा कि ध्यान के काल में किसी प्रकार के अनधिकृत-अनुचित विचार अर्थात् वृत्ति नहीं उठाऊँगा। इस प्रकार चारों बिन्दुओं पर प्रतिदिन विचार करके ध्यान करने के लिए बैठें।

योग साधक- निम्नलिखित प्रक्रिया के अनुसार ध्यान करें। इस प्रक्रिया को एक घण्टे के काल को समक्ष रख कर प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि कम समय तक करना चाहते हैं, तो प्रक्रिया को इसी तरह रखते हुए समय को कम करें। यदि समय की अवधि को बढ़ा कर करना चाहें, तो जप की अवधि और अधिक बढ़ाकर कर सकते हैं।

ध्यान की प्रक्रिया

एक उदाहरण

ऐसे आसन पर बैठिये, जिस पर स्थिर होकर बैठ सकें। सम्पूर्ण शरीर को सीधी रेखा में रखना है। मेरुदण्ड को सीधा रखें। पूर्ण रूप से सरल हो करके सीधा बैठें। गर्दन को सीधी रेखा में रखना है, दृष्टि सामने की ओर रखें। ऐसी स्थिति में यह अनुभूति हो कि मेरे बैठने में किसी प्रकार का कोई तनाव -खिंचाव नहीं है। यह प्रतीति नहीं होनी चाहिए कि मैंने बैठे रहकर अपने शरीर को दुख दिया, पीड़ा दी, कष्ट दिया, शरीर अकड़ गया, तनाव ग्रस्त हुआ, दबाव ग्रस्त हुआ। अभी, एक बार अपने शरीर को हिला-डुलाकर और सुव्यवस्थित कर लीजिए, जिससे आगे चलकर, ध्यान के काल में हिलना-डुलना न पड़े।

अब धीरे-धीरे, कोमलता से आँखें बन्द कर लीजिए। संकल्प मात्र से अपने सम्पूर्ण शरीर को शिथिल करना है, ढीला छोड़ना है। अकड़ करके नहीं बैठना है।  शरीर के सुव्यवस्थित करने के बाद अब मन को सुव्यवस्थित करना है, मन को एक स्थान पर टिकाना है, रोकना है, बांधना है।

संकल्प से, भावना से अपने मन को अपने ही शरीर के एक स्थान पर टिकाइये। मस्तक में अथवा भ्रूमध्य में, नासिका के अग्रभाग में, जिह्वा के अग्रभाग में, कण्ठ में, हृदय में अथवा नाभि में। जहाँ पर आपने अपने मन को टिकाया, रोका, अपनी सारी आन्तरिक दृष्टि को वहीं पर केन्द्रित कीजिए। अपनी शक्ति को, सामर्थ्य को, ज्ञान-विज्ञान को वहीं पर केन्द्रित कीजिए और आत्मा से सतत् वहीं पर अनुभव कीजिए।

मैं इच्छा से, प्रयत्न से, द्वेष से, प्रीति से, ज्ञान से युक्त हूँ। किन्तु मैं सुख से, आनन्द से रहित हूँ। सुख-आनन्द मुझ आत्मा का स्वरूप नहीं है। मैं आनन्द से युक्त होना चाहता हूँ। हे परमपिता परमेश्वर! आप आनन्द से परिपूर्ण हो, सुख से परिपूर्ण हो। हे दयालु जगदीश्वर! आप दया करके मुझ आत्मा को आनन्दित करो। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ पर आप न हों। जहाँ पर मैंने अपने मन को टिकाया, आप वहाँ पर भी हो। अर्थात् मैंने मन को आप में टिकाया, मेरा मन आप में है। सतत् अनुभूति, प्रभु में अपनी अनुभूति। अपने में प्रभु की अनुभूति।

इस संकल्प को मन में दोहरायें। हे जगदीश्वर! आप मुझे देख-सुन-जान रहे हो। मैं आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ, संकल्प लेता हूँ, व्रत धारण करता हूँ। अब मैं मन को आप से हटाकर इधर-उधर नहीं ले जाऊँगा। पूर्णनिष्ठा से, रुचि से, श्रद्धा से, प्रेम से, तन्मयता से, अन्दर से गद्-गद् होकर, प्रभु का ध्यान करना है। ध्यान करते समय तीन बातों को अपने समक्ष रखिए। एक-प्रभु का संकेत करने वाले शब्द का उच्चारण करना, दो-शब्द के अर्थ को मन में रखना, तीन-प्रभु की उपस्थिति को सतत् अनुभव करना। इन तीन बातों को सामने रखते हुए, ध्यान प्रारम्भ करना है।

हे सर्वरक्षक प्रभो! आप नाना प्रकार से, अनन्त प्रकारों से सतत् मेरी रक्षा कर रहे हो। आप प्राण से भी प्रिय हो। आप समस्त दुःखों से रहित हो, अपने भक्तों के सम्पूर्ण दुःखों को दूर करते हो। करुणा करके मुझ भक्त के सम्पूर्ण दुखों को दूर कीजिए। आप आनन्द से परिपूर्ण हो। अपने भक्तों को आनन्द से परिपूर्ण करते हो। दया करके मुझ भक्त को भी अपने आनन्द से आनन्दित करो। आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाले सृष्टिकर्त्ता हो, सर्वोत्पादक हो, जनक हो। सविता स्वरूप हो। आप समस्त मलिनताओं से रहित हो। आप शुद्ध, पवित्र, निर्मल भर्गः स्वरूप हो। आप दिव्य गुणों से युक्त हो। आपमें अनन्त गुण, कर्म स्वभाव हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त बल, अनन्त सामर्थ्य, अनन्त दया, अनन्त करुणा, अनन्त कृपा।

प्रभो! आप वरणीय हो, अपनाने योग्य हो, आपके वरणीय प्राण-प्रदाता स्वरूप को, दुख विनाशक स्वरूप को, आनन्द स्वरूप को, सविता स्वरूप को, शुद्ध, निर्मल, पवित्र भर्गः स्वरूप को, दिव्य गुणों से युक्त देव स्वरूप को मैं अपनी आत्मा में धारण कर रहा हूँ। आप प्रभु  हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण-कर्म-स्वभावों में प्रवृत करो, अपनी मनः स्थिति को देखिये। मेरा मन प्रभु में है। मैं स्वयं प्रभु में हूँ। भूल से, अज्ञानता से, अपने मन को इधर-उधर ले जाते हों तो तत्काल रोकना है। अपनी प्रतिज्ञा को अपने समक्ष रखना है। पुनः प्रतिज्ञाबद्ध होना है। जहाँ पर मन को टिकाया था वहीं पर अपने मन को रख कर वहीं पर प्रभु का ध्यान करना। अन्दर से गद्-गद् होकर, आत्मस्थ होकर प्रभु का ध्यान करना है। पूर्णनिष्ठा से, रुचि से, श्रद्धा से, प्रेम से, तन्मयता से ध्यान करना है।

हे सत्यसिन्धो! असत्य से छुड़ाकर मुझको सत्य की ओर ले चलो, हे सर्वज्ञ जगदीश्वर! तमस् रूपी अज्ञान से, अविद्या से, मूर्खता से छुड़ाकर ज्ञानरूपी, विवेकरूपी, वैराग्यरूपी ज्योति की ओर ले चलो। हे मोक्ष प्रदाता! हे आनन्द से परिपूर्ण परमपिता परमेश्वर मृत्यु आदि समस्त दुःख से छुड़ा कर नित्य, शाश्वत, आनन्द रूपी अमृत की ओर ले चलो।

हे परमपिता परमेश्वर! आपने मुझ पर अनन्त उपकार किये, कर रहे हो व करोगे। मुझ उपकृत आत्मा की इस कृतज्ञता को स्वीकार करो।

योग का आठवां अङ्ग – समाधि

वस्तु के जैसे गुण, कर्म, स्वभाव हैं साधक समाधि में वैसा ही साक्षात्कार करता है। परमेश्वर के जिस गुण का ध्यान करते हैं, समाधि में उसी गुण का दर्शन होता है, सब का नहीं।

समाधि के लाभ

  1. पाप कर्म सर्वथा नहीं होते क्योंकि पाप कर्म में प्रवृत्त करने वाले कुसंस्कार समाधि से नष्ट होते हैं।
  2. मन के समस्त विकार दूर होते हैं।
  3. मूर्खतारूपी अविद्या अर्थात् अज्ञान सर्वथा नष्ट होती है।
  4. प्रभु-दर्शन से सुख, शान्ति, तृप्ति, निर्भयता, स्वतन्त्रता की प्राप्ति होती है।
  5. ईश्वर का आनन्द मिलता है। जिससे मुक्ति जैसा अनुभव करते हैं।
  6. समाधि से भवसागर रूपी संसार चक्र (जन्म व मरण रूपी चक्र) से सर्वथा छूटकर मृत्युञ्जय बन जाते हैं। शरीर में न रहने (मृत्यु होने) पर मुक्ति में जाते हैं अर्थात् जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।

जीवात्मा को सन्तुष्ट, तृप्त, प्रसन्न, निर्भीक, स्वतंत्र एवं परम आनन्दित करने के उद्देश्य से जगदीश्वर संसार का निर्माण, पालन व विनाश करता है। जीवात्मा का उद्देश्य समाधि से पूर्ण होता है। जीव की समस्त उपलब्ध्यिों में सर्वोत्तम उपलब्धि समाधि है।

समाधि से जड़ वस्तुओं एवं चेतन वस्तुओं का प्रत्यक्ष होता है। मनुष्य को संसार में विभिन्न प्रकार के दुख भोगने पड़ते हैं। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए समाधि लगाने जैसा महान् उपक्रम करना चाहिए।

मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों से अपने जीवन काल में अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जड़ वस्तुओं का प्रत्यक्ष करता रहता है। इस प्रत्यक्ष के गहरे संस्कारों के कारण आत्मा, परमात्मा के विषय में भी उसी प्रकार की परिकल्पना करके मनुष्य परमेश्वर को भी रूपवाली, भार वाली वस्तु मान बैठता है। अनेक योग-साधक साक्षात् कथन करते हैं कि एक प्रकाश पुंज (बहुत ही सफेद, विभिन्न, विशिष्ट रंगों में विशाल प्रकाश) दिखाई देता है। वे इसे चेतन का प्रकाश मानते हैं। कोई-कोई साधक आत्मतत्व को बिन्दु रूप में, विशिष्ट नाद अर्थात् शब्द रूप में अथवा जलती हुई एक छोटी सी ज्योति रूप में अनुभव करते हैं।

यद्यपि परमेश्वर को समझने के लिए दृश्य संसार मनुष्य का निकटतम साधन है। वेद भी ऐसा ही वर्णन करता है। परन्तु संसार के सभी गुण अर्थात् धर्म परमेश्वर में मान लेना, पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को न जानने का परिचालक है। सूर्य के समान परमेश्वर प्रकाश स्वरूप है। जैसे सूर्य में प्रकाश का विशाल भण्डार है, वैसे ही परमेश्वर में ज्ञान का विशाल भण्डार है।

समाधि-प्राप्त योगी की अनुभूतियाँ

  1. योगी जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में आत्मसात् करता है। परिणामस्वरूप योगी हानिकारक वस्तु को जीवन में कभी नहीं अपनाता है। फलतः उनसे मिलने वाले दुखों से सदा दूर ही रहता है।
  2. योगी ऋतम्भरा-प्रज्ञा से युक्त होने से वस्तु के यथार्थ रूप को सत्य जान व मानकर सत्याचरण ही करता है। असत्याचरण किसी परिस्थिति में नहीं करता है।
  3. निद्रा काल को छोड़कर जागरित अवस्था में सदा सात्विक बना रहता है। अपने को सदा सम रखता है।
  4. योगी स्वयं को चेतन स्वरूप, परिवर्तनों से रहित अपरिणामी, जड़ वस्तुओं के अति निकट अनुभव करते हुए निजरूप में (आत्मनिष्ठ) स्थित होकर परमेश्वर में स्थित अनुभव करता है।
  5. जागरित अवस्था में करने योग्य समस्त कार्यों को करते हुए स्वयं को अलग और मन को अलग अनुभव करता है।
  6. योगी कभी भी ऐसा कर्म नहीं करता है, जो कर्म दुःख देने वाला बने अर्थात् जन्म देने वाले कर्माशय को बनने नहीं देता है।
  7. योगी प्रत्येक कर्म को प्रमाण पूर्वक ही करता है। ऐसा कोई कर्म नहीं करता है, जो मिथ्या-ज्ञान का कारण बनता हो।
  8. सदा आनन्द की अनुभूति कराने वाले उन समस्त उपायों को स्मरण रखता है, जिससे दुखी कभी न बन सके।
  9. योगी अपने जीवन काल में सुख अर्थात् आनन्द की अनुभूति को देने वाले कर्मों का ही अभ्यास निरन्तर, लगातार, बिना नागा रखते हुए जीवन पर्यन्त तपस्या पूर्वक, ब्रह्मचर्य पूर्वक, ज्ञानपूर्वक, श्रद्धा पूर्वक करने में ही अपने को धन्य समझता है।
  10. योगी दुःखदायी वस्तुओं को सदा त्याग किये हुए और आनन्ददायक वस्तुओं को हमेशा पकड़े हुए रहता है अर्थात् वैराग्य से सदा युक्त रहता है।
  11. योगी अपने ऊपर उपकार किये हुए सभी गुरु जनों का उपकार स्वीकार करते हुए सबके प्रति कृतज्ञ बनकर, किसी एक शरीरधारी ही को अपना गुरु न मानकर जिन-जिन से विद्या प्राप्त की उनको न भुलाते हुए भी परमेश्वर को ही अपना मुख्य गुरु स्वीकार करता है। परमेश्वर की ही सर्वाधिक भक्ति करता है।
  12. योगी अपने परमानन्द की अनुभूति को रोकने वाले समस्त बाधकों, विघ्नों को सदा अपने से दूर ही रखता है।
  13. बाधकों, विघ्नों को दूर करने के लिए सदा परमेश्वर का ही सहारा लेता है।
  14. योगी का संपूर्ण जीवन प्राणी मात्र के प्रति मित्र की भावना से, करुणा की भावना से, ईर्ष्या रहित भावना से और समाज को अत्यधिक दुःख पहुँचाने वालों के सम्मुख आने पर उनके प्रति उपेक्षा की भावना से और वे दुष्टजन अपने दुष्ट भावों को त्याग कर सुखी बनें ऐसी भावना से ओत-प्रोत होता है।
  15. योगी अपने प्राणों को अपने वश में करके मृत्यु को जीत कर मृत्युञ्जय बन जाता है।
  16. योगी अपने मन को सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं स्थूल से स्थूल किसी भी पदार्थ में लगाने में समर्थ होता है।
  17. योगी अपने आपको इस तरह अनुभव करता है जैसे कि पर्वत शिखर पर खड़े होकर जमीन पर चलने वाले मनुष्यों को कोई देखता है, अर्थात् स्वयं को उच्च शिखर अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त किया हुआ और अन्यों को न प्राप्त किया हुआ देखकर उनके शोक अर्थात् दुख, भय परतन्त्रता को दूर करने का ही अपना एक मात्र कर्तव्य मानकर सदा प्रवृत्त रहता है।
  18. योगी आँख के समान होता है। जिस प्रकार आँख में बाल या अन्य किसी सूक्ष्म कण के गिरने पर वह अत्यन्त संवेदनशील होता है, वैसे ही योगी अपने कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील होते हुए अविद्याजन्य दुख मात्र का स्पर्श नहीं होने देता है।
  19. योगी शरीर में रहकर पूर्व में किए हुए कर्मों का फल पूर्ण करने हेतु परोपकार में लीन रहता है। इसी शरीर से भविष्य में आने वाले दुख को पूर्ण रूप से रोक देता है अर्थात् दुखदायी कर्म नहीं करता है।
  20. योगी सार्वभौम रूप से यम, नियम का पूर्ण पालन करता है। आसन को पूर्ण सिद्ध कर लेता है। इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है।
  21. योगी समाधि से सर्वोत्कृष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।
  22. संसार में दुख किस-किस से मिलता है, उन सब को जान लेता है। योगी के लिए और जानने योग्य कुछ शेष नहीं रहता है।
  23. दुख देने वाले सम्पूर्ण कारणों को नष्ट कर देता है। नष्ट करने योग्य और कुछ शेष नहीं रहता है।
  24. शरीर में रहते हुए ही मुक्ति का अनुभव कर लेता है।
  25. शरीर छूटने पर मुक्ति में जाने के उपायों को शरीर रहते पूर्ण रूप से संरक्षित कर लेता है। अपने को पूर्ण सुरक्षित अनुभव करता है।
  26. अपने जड़ मन को इस प्रकार प्रयोग में लाता है, जिस प्रकार एक मदारी अपने बन्दर को प्रयोग में लाता है। इसके परिणामस्वरूप योगी का मन सांसारिक सर्वोत्कृष्ट सुख को एवं मुक्ति -सुख को दिलाकर अपने कर्तव्य को पूरा करता है। वास्तव में मन का यह ही प्रयोजन है।
  27. मन के समान, महत्तत्व रूपी बुद्धि, अहंकार, दसों इन्द्रियाँ व पञ्च तन्मात्राएँ भी योगी को मुक्ति मिलने तक प्रतीक्षा करते हैं, नष्ट नहीं होते।
  28. योगी शरीर में रहते हुए भी स्वयं को निर्लिप्त, मलों से रहित, शुद्ध, मुक्त, केवल अनुभव करता है।
  29. योगी यह कह उठता है कि इस संसार में आकर जो पाना था, सो पा लिया, और पाने योग्य मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं है।

          योगी पापकर्म कभी नहीं करता क्योंकि पापकर्म में प्रवृत्त करने वाले संस्कार व अविद्या समाधि से नष्ट हो जाते हैं।