मौलिक सनातन ज्ञान

यह ठीक है कि हमें अन्य प्रचलित धर्मों के बारे में जानकारी होनी चाहिए, परन्तु, क्या हमें अपने सनातन-धर्म अथवा हिन्दू-धर्म की जानकारी नहीं होनी चाहिए? 

-सभी धर्म एक समान हैं।
-हमें सभी धर्मों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
-हमें किसी भी धर्म की आवश्यकता नहीं। हमें बस अपनी सोच को सकारात्मक रखते हुए दूसरों के प्रति दुर्भावना छोड़ देनी चाहिए।
-मन की शान्ति के लिए आध्यात्मिकता की तरफ झुकाव में कोई बुराई नहीं। आध्यात्मिकता के नाम पर प्रतिदिन मन्दिर आदि जाना, भिन्न-भिन्न उपवास रखना, ज्योतिषियों के पास जाना और भिन्न-भिन्न पुराणों की कथाओं का श्रवण करना पर्याप्त है।
-विदेशी हर मामले में हमसे बेहतर हैं। सभी वैज्ञानिक अविष्कार विदेशियों ने ही किये हैं। विदेशियों के व्यवहार में धर्म के नाम पर किसी भी तरह का पाखंड व अंध-विश्वास नहीं है। खासकर यूरोपियन देशों ने हमसे बहुत अधिक भौतिक उन्नति की है। हमारी घटिया व्यवस्थाओं का कारण हमारे पूर्वज ही हैं, आदि आदि।

आजकल के लोगों में इस तरह की अवधारणाएं बड़ी आसानी से देखी जा सकती हैं। इसका कारण है- हमारा अपने श्रेष्ठ पूर्वजों के कार्यों को न पढ़ना और हममें अपनी संस्कृति के बारे में मौलिक ज्ञान का न होना। यह साईट इस कमी को पूरा करने का प्रयास है। इस देश में रहने वाले बहुसंख्यक समुदाय के धर्म को हिन्दू-धर्म कहा जाने लगा है। हम धर्म शब्द के वास्तविक मायनों को भूल गए हैं। यह साईट में कहीं कहीं हिन्दू-धर्म शब्द का प्रयोग मन की संकीर्णता को दर्शाता हुआ प्रतीत हो सकता है, वहाँ, इस शब्द का प्रयोग मन की संकीर्णता के कारण नहीं, बल्कि, किसी विशेष बात को बताने के लिए किया गया है। हम उस संस्कृति के वाहक हैं, जो मानवता का पर्याय थी। हमारा अपनी संस्कृति को जानना इस दृष्टि से भी आवश्यक हो जाता है।

आज हिन्दू-धर्म अपनी जड़ें खोता जा रहा है। हम इस परिस्थिति की सारी जिम्मेदारी शासन पर डालने को उतारु हैं। हम अपने पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई ज्ञान-राशि से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। इस ज्ञान-राशि के पीछे हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों की करोड़ों वर्षों की तपस्या है। राजा उसी तरह का होता है, जिस तरह की प्रजा होती है। यदि, हम अपने राजा को श्रेष्ठ देखना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को श्रेष्ठ यानि आर्य बनाना होगा। आर्यत्व व हिंदुत्व में भिन्नता ही यहीं है कि आर्य तो अपने आप को श्री राम व श्री कृष्ण जैसा बनाना चाहता है, परन्तु, हिन्दू अपने ऋषियों के कार्यों को न पढ़ व अपने श्रेष्ठ पूर्वजों जैसा बनने की इच्छा न कर आर्यवंशी कहलाने में ही खुश है। हमें अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए उस ज्ञान-राशि को, जो हमारी वास्तविक पूंजी है, आत्मसात करना ही होगा।

बहुत से लोगों की यह अवधारणा है कि आखिर हम हिन्दू-धर्म को जानने के पचड़े में ही क्यों पड़ें? हमें धर्म आदि के पचड़े में पड़कर अपना जीवनयापन करने की आवश्यकता ही क्या है? हम सभी लोग सुखी जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। धर्म को सुख का वास्तविक कारण माना गया है। यदि, हम अपने जीवन में सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो धर्म को जानकर उसके अनुरूप आचरण करना ही होगा। यदि कोई व्यक्ति अधार्मिक होने के बावजूद भी सुखी है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह व्यक्ति अधर्म के कारण से सुखी है। परन्तु, यह हमें निश्चय से मानना चाहिए कि उस व्यक्ति ने पहले कभी धर्म अवश्य किया होगा, जिसके कारण वह आज सुख भोग रहा है। न्याय, दया, करुणा, प्रेम आदि भावनाओं का उद्गम स्थल धर्म ही है। धर्म के बिना मनुष्य पशुवत है। वास्तविक सुख प्राप्त करने के लिए मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कर्मों को मानव-धर्म कहा जाता है। क्योंकि, सुख प्राप्ति की इच्छा से मनुष्य द्वारा करनीय व अकरनीय कर्म वेद में वर्णित हैं, इसलिए मानव-धर्म को वैदिक-धर्म भी कहा जाता है। मानव-धर्म अथवा वैदिक-धर्म को ही आज हिन्दू-धर्म के नाम से जाना जाता है। हमारा अपने धर्म व संस्कृति को जानना मानव-धर्म को जानना ही है। आगे बढ़ने से पहले हमें मनुष्य के अन्तिम व वास्तविक ध्येय को समझना और जनमानस की इस विषय से सम्बन्धित जिज्ञासाओं के समाधानों को जानना आवश्यक है।

मानव जीवन का लक्ष्य

जिज्ञासाएं और उनका समाधान

पौराणिक भाइयों से प्रार्थना

इस साईट का उद्देश्य अपने धर्म व संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त कराना है। वैदिक धर्म, जिसको आज हिन्दू धर्म भी कहा जाता है का वाङ्गमय अर्थात सत साहित्य अत्यन्त विशाल है। चार वेदों में 20,000 से अधिक मन्त्र हैं। वेदों में लिखी गई हर बात अपने आप में प्रमाण हैं और उन्हें किसी अन्य साहित्य से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। लेकिन, अगर उनमें लिखा हुआ कुछ भी हमारी चेतना के खिलाफ जाता है, तो यह तय है कि हम उस मंत्र की भावना को समझने में विफल रहे हैं और हमें ऐसी दशा में अपनी चेतना के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए। वेदों को ठीक से समझने के लिए शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष छह शास्त्र हैं, जिनको वेदाङ्ग भी कहा जाता है। वेदांगों को समझे बिना वेदों को समझना असम्भव है। चारों वेदों के पृथक-पृथक उपवेद हैं। ‘उपवेद’ नाम किसी एक ग्रंथ विशेष का न होकर ग्रंथों के समूह का है। इनमें से अनेक ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं। चारों वेदों के मंत्रों की व्याख्या के रूप में ब्राह्मण ग्रंथों का सृजन हुआ। आज उपलब्ध ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या बहुत कम है, जबकि, किसी काल में ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या सैंकड़ों तक पहुंचती थी। लोकप्रिय ग्यारह उपनिषद इन्हीं ब्राह्मण ग्रंथों के भाग हैं। कुछ लोगों के अनुसार उपनिषदों को भी वेद कहा जाता है, जो गलत है। ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त ऋषियों की परम्परा को मानने वाले महर्षि दयानन्द का कथन है कि केवल ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की मन्त्र संहिताओं को ही वेद कहा जाता है। यज्ञों के रहस्यों को बताने वाले ग्रंथों को आरण्यक कहा जाता है। इन ग्रंथों का आकार बहुत छोटा होता है और ये भी ब्राह्मण ग्रंथों के ही हिस्से होते हैं। किसी काल विशेष अथवा किसी परिस्थिति विशेष में वैदिक मान्यताओं के अनुरूप समाज को चलाने के लिए नियम स्मृति ग्रंथों में दिए गए हैं। उपांगों के नाम से जाने जानेवाले छह दर्शनों में वैदिक सिद्धांतों को तर्क से सिद्ध किया गया है। इन सबके पश्चात वैदिक वाङ्गमय में रामायण और महाभारत का नाम आता है। ये ऐतिहासिक ग्रंथ हैं और भगवद्गीता व विदुरनीति महाभारत के ही भाग हैं। इन सभी आर्ष ग्रंथों में स्वार्थी लोगों ने बहुत से मिलावटें कर दी हैं। इन ग्रंथों में लिखी सभी बातें सही नहीं हैं। इन में लिखी बातों को तभी प्रमाण माना जाना चाहिए, यदि वे वेदों के अनुरूप हों। यह हमारा सौभाग्य है कि वेदों में किसी तरह की कोई मिलावट नहीं की जा सकी है। परन्तु, अब प्रश्न उठता है कि एक साधरण व्यक्ति, जो वेदों की शिक्षाओं से अनभिज्ञ है, कैसे जान सकता है कि हमारे ग्रंथों में लिखी कौन सी बातें सही हैं और कौन सी बातें मिलावटी हैं? इसके लिए एक सामान्य सी कसौटी है कि जो बातें सम्भव अर्थात सामान्य बुद्धि से सही, विवेकपूर्ण, तर्कसंगत व सकारात्मक हों, उनको सत्य माना जाए और अन्य बातों को मानना उस समय तक स्थगित कर दिया जाए, जब तक हमारी बुद्धि, विवेक व तर्कशक्ति ओर अधिक सूक्ष्म न हो जाए।  

यहां बताई गईं विभिन्न बातें वैदिक वाङ्गमय का अंश मात्र ही हैं और ये सभी बातें विभिन्न वैदिक विद्वानों, जैसे कि पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय, आचार्य वागीश शर्मा, आचार्य आशीष आर्य, मुनि सत्यजित आर्य, स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, आचार्य सोमदेव आर्य, स्वामी विष्वङ्ग, आचार्य योगेन्द्र याज्ञिक, बहिन अंजलि आर्या, आचार्य अंकित प्रभाकर आदि के ग्रंथों व प्रवचनों से ली गईं हैं। यदि इन बातों में कोई वैदिक सिद्धांतों के विरुद्ध कथन है, तो वह अवश्य ही मेरी भूल का परिणाम है, जिसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ व ऐसी भूल को प्रमाण सहित बताने पर उसे ठीक कर लिया जाएगा। इतने विशाल वाङ्गमय पर आधारित हिन्दू धर्म की जानकारी प्राप्त करने के क्रम को पाँच स्तरों में विभाजित किया गया है। 

हालाँकि, अगले स्तरों में जाने से पहले पिछले स्तरों में दी गई जानकारियों को आत्मसात करना आवश्यक है, परन्तु अगले स्तरों में जाने से, पिछले स्तरों में दी गई जानकारियां अर्थहीन नहीं हो जाती।

हिन्दू धर्म अथवा मानव-धर्म को विभिन्न स्तरों के माध्यम से जानने की गम्भीर प्रक्रिया में जाने से पहले यह उचित है कि हम इस धर्म के सार-तत्व के अनुसार हर परिस्थिति में शान्त व प्रसन्न रह पाने के सूत्रों से अवगत हो जाएं। इसके लिए नीचे दिए गए निबन्ध को अपने व्यवहार में लाने का प्रयत्न करें।

मन की प्रसन्नता को स्थायी रूप से प्राप्त करने की विधियां

प्रत्येक वस्तु के विशेष गुण होते हैं, जो उस वस्तु के परिचायक होते हैं। गुणों के बिना कोई भी वस्तु हो ही नहीं सकती। इसी आधार पर, मनुष्यता के बिना कोई मनुष्य, मनुष्य नहीं हो सकता। मनुष्यता को परिभाषित करने का काम धर्म करता है। इसी कारण, धर्म एक ही होता है। इस कारण हम मनुष्यों का दायित्व बन जाता है कि हम मनुष्यता-रूपी धर्म को जाने व उसके अनुरूप आचरण करके सही मायनों में मनुष्य बनें। आज, जो मनुष्य धर्म, कर्मकाण्ड, ईश्वर आदि विषयों में आस्था रखते हैं, वे प्रायः विज्ञान से वियुक्त हैं और जो लोग विज्ञान, कला, निर्माण, प्रबन्ध, व्यवस्था, तकनीकी आदि से सम्बन्धित हैं, वे प्रायः अध्यात्म से उपेक्षित हो गए हैं। वस्तुतः अध्यात्म विज्ञान के बगैर हो ही नहीं सकता और अध्यात्म के बगैर विज्ञान अपंग है। मनुष्य बनने के लिए हमें दोनों की आवश्यकता है। धर्म का स्वरूप बताने वाली पुस्तक वेद ही है। बहुत सारे प्रश्न हो सकते हैं- जैसे, वेद कैसे धर्म का स्वरूप बताने वाली पुस्तक है?, वेद कैसे ईश्वर-प्रदत्त हैं?, हमें क्यों वेदों को ईश्वर द्वारा दिए ज्ञान के रूप में मानना चाहिए? आदि आदि। इन प्रश्नों के बारे में हम अगले स्तरों में जानेंगे। लगभग 5000 वर्ष पहले तक इस भूखण्ड में रहने वाले लोग वेद को धर्म का स्रोत मानकर उसकी शिक्षाओं के अनुरूप ही चलते थे। वेदों के अनुरूप आचरण होने के कारण इस भूखण्ड में रहने वाले लोग यानि कि हमारे पूर्वज श्रेष्ठ कहलाते थे। संस्कृत में श्रेष्ठ को ‘आर्य’ कहा जाता है। इस कारण, रामायण, महाभारत, गीता आदि ग्रंथों में हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों को सम्बोधित करने के लिए ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग मिलता है। लेकिन कुछ समय पहले इस भूखण्ड में रहने वाले लोगों को विदेशियों द्वारा ‘हिन्दू’ नाम दे दिया गया और आज हम अपने आप को हिन्दू कहे जाने पर गर्व की अनुभूति करते हैं। हमारे श्रेष्ठ पूर्वज श्री राम, श्री कृष्ण, श्री हनुमान आदि वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे। हमें एक बार फिर उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के लिए वेदों की शिक्षाओं की ओर लौटना होगा। हमारे जीवन में घुस चुकी अवैदिक मान्यताओं के विरुद्ध वैदिक शिक्षाओं को इस उपक्रम के तीसरे स्तर में दिया गया है। 

जो लोग अपने आपको श्री राम, श्री कृष्ण आदि के वंशज मानते हैं, वह अपने आप को आर्यवंशी तो कह सकते हैं, परन्तु ‘आर्य’ नहीं। जो श्रेष्ठ अर्थात आर्य है, वह बुरा हो ही नहीं सकता। जबकि, आज हम हिन्दुओं में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, बुराइयों का समावेश हो चुका है। हम हिन्दू अपने आप को सनातन धर्मी भी कहते हैं। सनातन का अर्थ होता है, शाश्वत अर्थात जो चीज हमेशा सत्य रहे। उदाहरण के लिए, ‘हमें किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए’ एक सनातन सिद्धांत है। आज बहुत कम लोग ही सनातन सिद्धांतों की जानकारी रखते हैं। हमें श्री राम, श्री कृष्ण आदि के चरित्र को अपनाने के लिए सनातन सिद्धांतों की जानकारी प्राप्त करनी ही होगी। सुखी रहने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

प्रथम तो हमें हिंदुत्व को परिभाषित करना होगा। संसार की प्रत्येक वस्तु की अपनी परिभाषा है। परिभाषा के अंतर्गत कुछ गुण दिए जाते हैं। जिस वस्तु में वे गुण होते हैं, वह वस्तु उक्त वस्तु कहलाती है और जिस वस्तु में परिभाषा के अनुरूप गुण नहीं होते, वह वस्तु उक्त वस्तु नहीं कही जाती। यह विडम्बना ही है कि अन्याय करने वाला भी हिन्दू कहलाता है और अन्याय न करने वाला भी। इस विडम्बना का मूल कारण यह है कि दूसरे सम्प्रदायों की तरह हमारा हिंदुत्व हिन्दू परिवार में जन्म ले लेने से निर्धारित हो जाता है। एक व्यक्ति डाक्टर का पद प्राप्त करने के लिए बहुत पढ़ता है, लेकिन, ऐसा माना जाने लगा है कि हिन्दू कहलाने के लिए हमें अपने श्रेष्ठ पूर्वजों के कार्यों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं, बल्कि इसके लिए किसी हिन्दू परिवार में जन्म लेना ही पर्याप्त है। श्री राम बिना कुछ सीखे मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बन गए। आइए, हम वेद-विद्या को पढ़ें और समझें। तभी हम, हिन्दू उन्नति कर सकते हैं।

किसी बात को केवल इसी कारण मान लेना कि वह बात संस्कृत में लिखी अथवा कही गई है, अत्यन्त गलत है। किसी बात को केवल तर्क के अनुरूप होने से ही माना जाना चाहिए। आगे कही हुई सभी बातें तर्क के अनुरूप होने से ही माननीय होनी चाहिएं। आगे कही कोई कोई बात अज्ञान के कारण आपको तर्क के विरुद्ध प्रतीत हो सकती है, ऐसी बातों को मानना आपको कुछ देर के लिए स्थगित कर देना चाहिए। कालान्तर में जब आप के अज्ञान में कमी आ जाए और वह बातें आपको तर्क से समझ आ जाएं, तभी वह आपके लिए माननीय होनी चाहिएं।

दूसरा स्तर

ओम्

तीसरा स्तर

ओम्

चौथा स्तर

ओम्

पाँचवाँ स्तर

ऊपर वर्णित विभिन्न लेख व प्रवचन वैदिक धर्म के बारे में मौलिक जानकारियां ही देते हैं। क्योंकि, हमारे पास सीमित समय होता है, इसलिए हमारा प्रयत्न होता है कि हम किसी विशेष ज्ञान के सार को समझ लें। लेकिन, किसी विशेष ज्ञान के सार को समझने के पश्चात ऐसा नहीं होता कि हम उस ज्ञान के मूल स्रोत से विमुख हो जाते हों, बल्कि जाने हुए सार की सत्यता की पड़ताल करना हमारा अगला ध्येय बन जाता है। इसके साथ-साथ ही हम ज्ञान के उस मूल स्रोत को भी अधिक से अधिक जानने का प्रयत्न करते हैं, ताकि सार में प्राप्त ज्ञान को ओर उत्कृष्ट तरीके से समझा जा सके। ऊपर के स्तरों में वैदिक ज्ञान के सार को अनेक वैदिक विद्वानों के लेखों व प्रवचनों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है, ताकि आपमें वैदिक वाङ्गमय को अधिक से अधिक जानने की रुचि बड़े।  

अब तक हम जान चुके हैं कि वेद की आज्ञाओं का पालन करना ही हमारे जीवन का वास्तविक ध्येय है। चारों वेदों में ईश्वर के स्वरूप का बखान ही मुख्य है। ईश्वर के स्वरूप को सूक्ष्मता से जानने के लिए हमारा वैदिक वाङ्गमय को अधिक से अधिक पढ़ना व सुनना आवश्यक है। इससे अपने प्रत्येक कार्य में सर्वत्र ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करने में सुगमता होती है। जब हम अपना हर कार्य ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप करते हैं, तो ईश्वर की न्याय व्यवस्था से पात्रता आने के साथ ही हमें उच्चतर अवस्था प्राप्त होती जाती है।