उपासना के फल की समय सीमा

 

-अर्जुन देव स्नातक

हमने यहाँ स्थानीय एक संस्कार में ध्यान के महत्त्व पर कुछ शब्द कहे- प्रतिदिन समय निकालकर 10,15,20,30 मिनट उपासना करने की, ध्यान में बैठने की प्रेरणा दी। दो तीन मास बाद, एक माता जी बोलीं-मैंने आपके बताये निर्देशानुसार ध्यान में बैठने का कार्य आरम्भ किया। एक सप्ताह बैठने पर भी मन स्थिर नहीं हुआ, इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। ऐसी स्थिति में क्या करें? यह दुविधा प्रायः सभी को कचोटती रहती है, फिर वह ध्यान में बैठने का विचार ही छोड़ देता है। आईये, इस समस्या के समाधान पर विचार करें।

मैंने माताजी से कहा कि आपके घर में आपका कोई पुत्र है। माताजी ने कहा -‘जी हां दो पुत्र है, एक बैंक में कार्यरत है, दूसरा एम.एस.सी. कर रहा है।’ मैंने पुनः उनसे कहा- ‘आपने कितने धैर्य से, निष्ठा से, लगन से पुत्र को योग्य बनाने में अपने जीवन को लगा दिया। २२, २३ वर्ष का आपका प्रयास आपकी निष्ठा सफल हुई और निष्ठा की उपलब्धि पुत्र का योग्य होना, अपने पैरों पर खड़ा कर देना, प्राप्त हुई। जीवन के इतने वर्ष सांसारिक योग्यता में, उपलब्धि में व्यतीत हुए। फिर ईश्वर की उपलब्धि में थोड़े समय के बाद आप निराश क्यों हैं? आपने यह कार्य छोड़ क्यों दिया। धैर्य से करती रहतीं।’

स्मरण रखना चाहिये कि मन चंचल ही है, वह तो दौड़ेगा, उसे अव्याहत गति से दौड़ने दीजिये। प्रथम तो कुछ दिन बाहरी बातों में दौड़ेगा, कुछ दिनों दौड़ने दें। फिर धीरे-धीरे अभ्यास करके मन्त्रार्थ में दौड़ाना चाहिए।  ईश्वर के जिस गुण की चर्चा हो उस गुण के विशाल स्वरूप के चिन्तन में मन को दौड़ाइये, निराश न हों, धीरे-धीरे अभ्यास से निराकार  परमेश्वर की व्यापकता में, उसकी विशालता में दौड़ेगा। सन्ध्या में मनसा-परिक्रमा मन्त्रों का विधान भी इसी दृष्टि से है। मैंने माताजी की वृत्ति देखकर उन्हें यह भी प्रेरणा दी कि भोजन के उपरान्त आधा या एक घण्टे का मौन रखिये। इस अवसर पर एकान्त में बैठें। न कुछ सुनने में ध्यान हो, न बोलने का विचार हो, बस शान्त, स्थित रहने का अभ्यास करें। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस उपाय से उन्हें आनन्द आया। गीता के द्वितीय अध्याय का 44 वाँ श्लोक इस तथ्य को इन शब्दों में वर्णित करता है-

                                                      भोगैश्वर्यप्रसक्तानां -से- विधीयते।  

-गीता २//४४

अर्थात् भोग ऐश्वर्य की संलग्नता में जिनका चित्त व्यस्त रहता है, ऐसे व्यवसायात्मक चित्तयुक्त बुद्धि समाधि में, ध्यान में नहीं रमती है, नहीं लगती है। अतः उपासना से पूर्व अन्तःकरण की पवित्रता, चित्त की शुद्धि आवश्यक है। इसलिए प्रथम ईश्वर की स्तुति-गुणों का गान करने का विधान है, तदनन्तर गुणों के अनुसार आचरण के लिए प्रार्थना- पुरुषार्थ का करना आवश्यक है। यही उपासना का क्रम है। उपासना की सफलता के लिए अभ्यास की आवश्यकता है।