उक्तियां अथवा सुविचार

– रचनात्मक व्यक्ति ‘देश-भक्त’ होता है और ध्वन्सात्मक ‘देश-द्रोही’

– भ्रष्टाचारी का मानसिक विकास नहीं हो सकता ।

– शिक्षित एवं स्वावलम्बी को ही सुविधाओं के उपयोग करने का अधिकार है ।

– जीवन मूल्य विहीन व्यक्ति जीवन-मूल्य-सम्पन्न के प्रति ईर्ष्यालु हो जाता है ।

– शिक्षक-समाज के सांस्कृतिक मूल्य होने चाहिए ।

– संस्कारवान सन्तान ही अपने मां-बाप के ऋण से उऋण हो सकती है ।

– मृत संस्कृति को फिर से जीवित करने के लिए देश वासियों को धर्म एवं अध्यात्म प्रधान होना चाहिए ।

– पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ।

– एकाग्रता ही आत्म-साक्षात्कार की कुंजी है ।

– साहसी व्यक्ति कभी भी बुरा काम नहीं करता ।

– आदमी उम्र से नहीं, विचारों से बूढ़ा होता है ।

– संसार में जितनी प्राप्तियां हैं, शिक्षा सबसे बढ़़कर है ।

– जीते जी ही कौन मर चुका है ? उद्यमहीन ।

– बिना सेवा के चित्त शुद्ध नहीं होता और चित्त की शुद्धि के बिना परमात्म तत्व की अनुभूति नहीं होती । अत: सेवा के अवसर ढूंढते रहना चाहिए ।

– हम बोते हैं बबूल और परिणाम में कांटों के बदले फूल चाहते हैं, जो कि नहीं मिलते हैं, और यहीं हमारे दु:ख का कारण है ।

– जिस दिन हम जीवन को समझ लेते हैं उस दिन जीवन से दुख मिट जाते हैं ।

– न भागो और न भोगो; बस जागो और जगाओ ।

– अज्ञात में उतर कर ही ज्ञात के द्वार खुलते हैं ।

– जीने के लिए दो गज़ ज़मीन, तन ढ़कने के लिए दो वस्त्र और भूख मिटाने के लिए दो रोटी तो सब को मिल ही जाती है, व्यक्ति की तृष्णा कभी भी तृप्त नहीं होती ।

– जहां मैं और मेरा जुड़ जाता है, वहां ममता, प्रेम, करुणा और समर्पण पैदा होते हैं ।

– वेद सार्वभौमिक हैं, इनकी उपयोगिता अखिल विश्व के सभी समाज व राष्ट्रों के हित में है। इनके सिद्धान्तों पर चलकर ही विश्व शान्ति की स्थापना हो सकती है।

– शुद्ध हृदय ही परम तीर्थ है। जिसका हृदय शुद्ध है उसे किसी तीर्थ पर जाने की आवश्यकता नहीं।

– जैसे फूंस में आग की चिंगारी से सब कुछ नष्ट हो जाता है इसी तरह शराब पीने से विवेक संयम, ज्ञान, सत्य,शौच, दया और क्षमा ये सारे गुण समाप्त हो जाते हैं।

– असंतोष को परम दु:ख और संतोष को परम सुख समझो।

– हिंसा, जिद्द, अहंकार, निन्दा, चुगली, बैर, ईष्या, उपेक्षा और भय क्रोध के सगे-सम्बंधी हैं।

– विकास के लिए विचारों का उन्नत होना पहली आवश्यकता है, विचार उन्नत होंगे तो माता-पिता व बड़े-बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा बनी रहेगी, क्रोध पर नियंत्रण रहेगा।

– जीवन को खुशहाल बनाने के लिए मनुष्य अनेक विधाओं में तो पारंगत होता जा रहा हे लेकिन वास्तविक लक्ष्य-जीवन जीने की कला को भूलता जा रहा है।

– मस्तिष्क का मुख्य भोजन ‘चिन्तन’ होता है, व्यक्ति के चिन्तन को दृढ़ करने का कार्य अध्ययन से पूरा होता है।

– अध्ययन से ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान से समस्याओं का समाधान संभव हो जाता है, समस्याओं का समाधान संभव हाने पर मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है।

– समय का सदुपयोग करना ही जीवन जीना है।

– भौतिक धन से भी अधिक मूल्यवान है समय। जो इसका मूल्य समझते हैं, जीवन की दौड़ में आगे निकल जाते हैं।

– शारीरिक रोग और मानसिक चिन्ताएं ही दु:ख का कारण हैं। इन दोनो से बचने के लिए उपाय करते रहना चाहिए।

– सब प्राणियों का हित करना ही परम धर्म है।

– इस संसार में जो यत्न नहीं करता उसे लक्ष्मी, विद्या और बल प्राप्त नहीं होते।

– कभी-कभी छोटी सी भूल भी बड़ी अनर्थकारी बन जाती है। अत: छोटी भूलों से भी बचना चाहिए।

– विश्वासघात सबसे बड़ा पाप है।

– सन्मार्ग से हटने पर समर्थ लोगों को भी आपत्तियां घेर लेती हैं।

– जब हम यह जानते हैं कि मृत्यु सबकी हो जाती है, बुरे कर्मों के परिणाम बुरे निकलते हैं, संसार में सम्पत्तियां किसी की स्थिर नहीं रहती, कर्मफल भोगने में कोई किसी का साझीदार नहीं, फिर भी हम दुराचरण में प्रवृत्त रहते हैं-यह आश्चर्य की बात है।

– सत्य कर्मों का सबसे बड़ा फल सद् बुद्धि की प्राप्ति है।

– सम्पत्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है, ज्ञान ही उससे लाभ उठा पाता है।

– ईश्वर और मृत्यु को जो व्यक्ति सदा सामने उपस्थित देखते हैं वे पापों से बचे रहे हैं।

– विधा प्राप्ति, धन प्राप्ति और बल प्राप्ति आसान हैं किन्तु सदाचार और यश की प्राप्ति बड़ी कठिन हैं।

– अपने में हीनता का अनुभव गिरावट की सबसे बड़ी निशानी है।

– धर्म की मर्यादा में रहने से ही समस्त सुखों की प्राप्ति और शान्ति मिलती है।

– जिस काम को करने से अन्तरात्मा को सन्तोष हो उसे प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए। जिससे सन्तोष न हो उसे त्याग देना चाहिए।

– उस स्वार्थ या सुख का त्याग कर दो जो किसी का दु:ख हो। उस दु:ख को प्रसन्नता पूर्वक अपनाओ जिससे किसी का हित होता हो।

– अंधेरे में खड़े हो तो उजाले की तरफ देखो और उधर ही बढ़़ने की कोशिश करो।

– शारीरिक स्मृद्धि से मानसिक स्मृद्धि व मानसिक स्मृद्धि से आत्मिक स्मृद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। 

– धृति अर्थात् धैर्य, धर्म की पहली सीढ़ी है।

– निश्चय कर अपनी जीत करूं।

– आलस्य से बढ़कर दूसरा कोई शत्रु नहीं।

– क्षण-क्षण (समय की बहुत छोटी इकाई) को मिला कर ही जीवन बनता है।क्षणों का सद + उपयोग ही जीवन को उन्नत बना सकता है। क्षणों को व्यर्थ जाने देने का अर्थ है अपने जीवन की उन्नति के अवसरों को खो देना।

– आजकल 5 व 10 मिनट व्यर्थ जाने देने को सामान्य माना जाने लगा है। ऐसे 5 व 10 मिनट करके हम रोज़ाना घण्टों व्यर्थ जाने देते हैं। हम अपने कामों में अनुशासन को लाकर घण्टों बचा सकते हैं।

– निरन्तर अभ्यास से किसी भी कार्य में कुशलता प्राप्त की जा सकती है।

– जो जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है।

–  “इससे यह समझा जा सकता है कि जहाँ परिवार, बन्धु-बान्धव, समाज, राजा का भय हो, वहाँ लोग पाप करने से डरते हैं और एकान्त या अन्धकार को ढूंढते हैं।”

-अज्ञात

–  “अधिक पाप अज्ञान के कारण होता है। पाप करने वाला यह जानता ही नहीं कि यह कर्म पाप है या पुण्य। बार-बार पाप कर्म करते रहने से उसका अन्तःकरण इतना मलिन हो जाता है कि आत्मा की आवाज सुनाई ही नहीं देती।”

-अज्ञात

–  “जो पतन की ओर ले जाये अथवा जिससे बचना चाहते हैं वह पाप कहलाता है।”

-अज्ञात

–  “शयन के समय शिवसंकल्प के मन्त्रों का चिन्तन और गायत्री या ओंकार का जप करते हुये सो जाने से भी स्वप्न बहुत ही कम आयेंगे और कभी-कभार आयेंगे भी तो वे अच्छे ही होंगे, पतन की ओर ले जाने वाले नहीं।”

-अज्ञात

–  “बुरे स्वप्न प्रातःकाल अधिक आते हैं इसलिये ब्रह्ममूहर्त में उठ नित्य कर्मों से निवृत हो ईश्वर-भक्ति, जप, प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिये।”

-अज्ञात

   “आत्मा के कारण ही शरीर का महत्त्व है, नहीं तो इसकी कौड़ी कीमत नहीं। इस आत्मा के जाने बिना मनुष्य के जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता।”

-अज्ञात

–  “इस मनुष्य-शरीर में ही आत्मा को जानना चाहिए। मनुष्य शरीर में ही वह जाना जाता है। जो इसे जाने बिना इस संसार से चले जाते हैं, उनका महानाश हो जाता है।”

-अज्ञात

–  “एक सज्जन मुझे मिले। मैंने पूछा- ‘क्यों भाई क्या करते हो ॽ ’वे बोले- ‘दुकान करता हूँ।’ मैंने पूछा – ‘दुकान किसलिए करते होॽ ’वे बोले- ‘धन कमाने के लिए।’ मैंने पूछा- ‘धन किसलिए कमाते होॽ ’वे बोले-‘खाने के लिए’ मैंने पूछा- ‘खाते किसलिए होॽ ’वे बोले-‘जीने के लिए’ मैंने पूछा- ‘जीते किसलिए होॽ ’तो उसने धीमे से कहा- ‘यह तो मालूम नहीं”’

-अज्ञात

–  “और परलोक ही क्यों, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि यह दुनिया कुछ भी नहीं, सब मिथ्या है, धोखा है। अरे भाई, यदि यह संसार मिथ्या है तो तुम यह धन क्यों एकत्र कर रहे हो। यह सम्पत्ति, यह बैंक-बैलेन्स, यह फिक्स्ड डिपाजिट ये बड़ी-बड़ी इमारतें किसलिए बना रहे हो।”

-अज्ञात

–  “मैं ऐसे साधुओं और महात्माओं को जानता हूँ जो दूसरों को कहते हैं कि जगत् मिथ्या है, यह सब धोखा और स्वप्न है और स्वंय बड़े-बड़े आश्रमों और मठों के मालिक बने बैठे हैं।”

-अज्ञात

–  “आज जितना भी अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार और व्याभिचार दुनिया में फैल रहा है, यह सबका-सब ‘प्रेय मार्ग’ का परिणाम है।”

-अज्ञात

–  “जैसे कोई खाँड में लिपटा हुआ विष खाता हो, इस तरह आज की दुनिया ‘प्रेयमार्ग’ पर दौड़ी जाती है। खाँड खाने में सुख होता है अवश्य, परन्तु विष से मृत्यु भी होती है। ‘प्रेय मार्ग’ पर चलने वाले आरम्भ में सुख पाते हैं यकीनन, परन्तु अन्त में दुःख के गहरे समुद्र में डूब जाते हैं।”

-अज्ञात

–  “यज्ञ शब्द का अर्थ है त्याग व दान अर्थात् कल्याण व परोपकार का कार्य। वेद मनुष्य को अग्नि की लपटों के समान निरन्तर ऊँचा उठने, प्रकाशवान बने रहने तथा अग्नि के समान तेजस्वी बने रहने का संन्देश देते हैं। अपने और दूसरों के भले के लिए किया गया प्रत्येक कार्य यज्ञ है।”

-अज्ञात

–  “प्रश्न-सामान्यता यज्ञ के नाम पर हवन की ही बात क्यों होती हैॽ

   उत्तर- इसका कारण यह है कि बाकी सभी यज्ञों में व्यक्ति को अपने को तैयार करना पड़ता है, तप और त्याग करना पड़ता है, आन्तरिक शुद्धि करनी पड़ती है। माता-पिता की सेवा अपने सुखों के त्याग से होती है। अतिथि व असहाय की सेवा के लिए भी कुछ त्याग जरूरी है। ब्रह्म-यज्ञ के लिए आन्तरिक शुद्धि की आवश्यकता है] इसके बिना प्रभु से सम्पर्क नहीं होता। परन्तु मात्र हवन करना एक आसान रास्ता दिखता है सो अपना लिया जाता है।”

-अज्ञात

–  ‘”यह जो शरीर के अन्दर से देखता है, जो शरीर के सो जाने पर भी स्वप्न देखता है, जो शरीर के अन्धा होने पर भी अन्धा नहीं होता, जो शरीर के अपाहिज होने पर भी अपाहिज नहीं होता, जो शरीर के समान एक स्थान पर कैद नहीं, जो शरीर नहीं, शरीर के अन्दर रहने वाला है। आँख नहीं, आँख के अन्दर से देखने वाला है। कान नहीं, कान के अन्दर से सुननेवाला है। नाक नहीं, नाक के अन्दर से सूँघने वाला है। वह आत्मा है, वह अजर है, वह अमर और निर्भय है।”’

–  “प्रत्येक वस्तु अपने ही प्रयोजन के लिए प्रिय लगती है। संसार के सब व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए ही कार्य करते हैं। परन्तु परमात्मा एवं महापुरूष केवल दूसरों के कल्याण के लिए ही कार्य करते हैं।”

-अज्ञात

–  “मंत्र शोधक संयंत्र की तरह काम करता है जैसे झाडू, कमरे में स्थित कचरे को साफ करता है वैसे ही मंत्र हमारे अंतःकरण में स्थित बाधक तत्वों को दूर करने में मदद करता है।”

-अज्ञात

–  “कठोपनिषद् कहता है कि ‘प्रेय मार्ग’ विनाश का रास्ता है। जो बुद्धिहीन हैं, मूर्ख हैं, वे इस मार्ग को अपनाते हैं। बुद्धिमान, सोच-समझ वाले, धैर्यवाले लोग ‘प्रेय मार्ग’ को नहीं, ‘श्रेय मार्ग’ को अपनाते हैं।”

-अज्ञात

–  “वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। ‘प्रेय मार्ग’ बुद्धिमत्ता और सूझबूझ का रास्ता है या मूर्खता और नासमझी का, इसका पता इसके परिणाम से लगता है। रावण ने ‘प्रेय मार्ग’ को अपनाया, पन्द्रह लाख वर्ष हो गए इस बात को। वह स्वयं नष्ट हुआ, उसका राज्य नष्ट हुआ, परिवार नष्ट हुआ।”

-अज्ञात

– विचारों की विपन्नता के कारण भौतिक सम्पन्नता के होने पर भी आदमी खुश्हाल नहीं।

– आदमी को अपनी बुराइयों को मारना चाहिए और अच्छाइयों को बढ़ाना चाहिए। बुराइयों और अच्छाइयों के बिना तो राम और रावण में काई अन्तर नहीं।

– पाप का बाप लोभ है।

– आर्य समाज की विश्व को देन पर आज का समाज कृतज्ञ नहीं।

– मूर्ख कौन हैॽ महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि मूर्ख वह है जो व्यक्ति स्वयं कुछ नहीं जानता और दूसरे के समझाने पर मानता नहीं।

– हमारी अध्यात्मिक यात्रा का एक पड़ाव है-तमस् से दूर होना। हमारा तमस् को जान लेना भी एक उपलब्धि है।

– मृत्यु के भय के कारण आदमी अमृत की इच्छा करता है और अमृत है ईश्वर ।

– दिया जलाना हवन का ही बिगड़ा हुआ रूप है। मध्यकाल में हवन (अग्निहोत्र) की वास्तविक पद्वति से बेहद भिन्न रीतियों ने जन्म ले लिया था। स्वामी दयानन्द जी ने अपने ऋषित्व से सभी कुरीतियों को एक झटके से अलग करके हमारे सामने अग्निहोत्र की वास्तविक पद्वति रख दी।

– यज्ञ केवल हवन मात्र नहीं। न मम् अर्थात ‘मेरा नहीं है’ का भाव मनुष्य को देवता बना देता है। यहीं यज्ञ का आत्मा है।

– प्रत्येक वह कर्म तीर्थ है जिसके करने से व्यक्ति दुखों से तर जाता है।जो व्यक्ति विषयों को नहीं देखता और यह जान गया है कि देखता तो कोई ओर है और ये आंखें देखने की शक्ति के रहने का स्थान मात्र हैं, ऐसा व्यक्ति देखते हुए भी अन्धा है।

– ईश्वर के दो काव्य हैं। एक सृष्टि और दूसरा वेद । इन दोनों काव्यों में गहरा सामंजस्य है।

– व्यक्ति कम कर्म करके अधिक पाना चाहता है-यही जुआ खेलना है।

– यज्ञ शब्द का अर्थ केवल ‘हवन’ नहीं बल्कि इसका तात्पर्य उन सब कर्मों से है जो पूर्ण ज्ञान से दूसरों की भलाई के लिए किए जाते हैं। ‘हवन’ यज्ञ को दर्शाने वाला एक चिन्ह मात्र है। वस्तुत: अगर एक चिकित्सक अपने पूर्ण ज्ञान से किसी रोगी की चिकित्सा कर रहा है तो वास्तव में वह यज्ञ ही कर रहा है। इसी तरह यदि कोई अध्यापक अपने पूर्ण ज्ञान को अपने शिष्य में उड़ेलने का प्रयत्न कर रहा है तो वह यज्ञ कर रहा है। इसी तरह अन्य कार्य भी यज्ञ की श्रेणी में आते हैं यदि कर्ता उन्हें पूर्ण पुरुषार्थ से दूसरों की भलाई के लिए करता है। यदि हम सब अपने कार्यों को यज्ञ की श्रेणी में ले आयें तो इस संसार में दुखों के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा।

– “यज्ञ शब्द का अर्थ है त्याग व दान अर्थात् कल्याण व परोपकार का कार्य। वेद मनुष्य को अग्नि की लपटों के समान निरन्तर ऊँचा उठने, प्रकाशवान बने रहने तथा अग्नि के समान तेजस्वी बने रहने का संन्देश देते हैं। अपने और दूसरों के भले के लिए किया गया प्रत्येक कार्य यज्ञ है।”

-अज्ञात

– “पौराणिक काल में रासलीला आदि का कृष्ण चरित्र में मिश्रण किया गया। श्री कृष्ण चरित्र के साथ गोपिकाओं का चीरहरण, राधा के साथ उनका प्रेम सम्बन्ध, कुब्जा दासी आदि की बड़ी अश्लील कथाएँ सब जोड़ दी गयीं। योगेश्वर श्री कृष्ण महारसिया व्यभिचारी के रूप में चर्चा में आ गये और पौराणिक कथाओं में भागवत आदि पुराणों की कथाओं में श्री कृष्ण का योगेश्वर रूप लुप्त को गया। श्री कृष्ण के इस भ्रष्ट चरित्र का अन्य मत वालों ने हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये खूब उपयोग किया। हिन्दुओं का सिर लज्जा से झुक जाता था। वे पौराणिक कथाओं के आलोक में अन्य मत वालों को कोई उत्तर नहीं दे पाते थे। कई हिन्दू तो इन अश्लीलताओं से लज्जित होकर धर्म परिवर्तन भी कर लेते थे।”

-अज्ञात

– “अपनी आत्मा की कामना के लिए ही धन, पति, पत्नी, पुत्र, भाई, बहन आदि प्रिय होते हैं। हम किसी को भी तभी तक प्रेम करते हैं, जब तक हमारी आत्मा को वह संतुष्ट करता रहता है। ज्यों ही हमारी आत्मा को दुःखी करता है तो हम उससे छुटकारा पाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वस्तुतः जब हम एक दूसरे से प्रेम कर रहे होते हैं तो हम अपनी आत्मा से प्रेम कर रहे होते हैं।”

-अज्ञात

– आज ईश-कृपा की मौलिक जानकारी न होने से समाज में ईश-कृपा के नाम पर अनेकों भ्रान्तियां पैदा हो गई हैं। ईश-कृपा का साधारण सा अर्थ है ज्ञान आदि प्रदान करने के लिए व्यक्ति का ईश्वर द्वारा चुना जाना। किसी भी चीज को पाने से पहले हमें उस चीज को प्राप्त करने का अधिकारी बनना पड़ता है। अधिकारी होने पर ज्ञान आदि प्रदान करने के लिए व्यक्ति का ईश्वर द्वारा चुना जाना ही ईश-कृपा है। बगैर ईश-कृपा के व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। बगैर ईश-कृपा के व्यक्ति लेट तो सकता है परन्तु नींद का सुख नहीं ले सकता, पढ़ तो सकता है परन्तु शब्दों के अर्थ नहीं समझ सकता आदि। अब ईश-कृपा कैसे पाई जाती है। एक सिद्धान्त है-व्यक्ति जितना जितना विश्व का उपकार करता जाता हे, उतनी उतनी ईश्वर की कृपा उस पर होती जाती है।

– विद्या और अविद्या दोनों को जानना आवश्यक है। दो चीजे हैं-बुराइयों को छोड़ना और अच्छाइयों को ग्रहण करना। बुराइयों के छोड़ने पर ही अच्छाइयों को ग्रहण करना सार्थक होता है जैसे गंदे बर्तन में अच्छी चीजों का डालना कभी सार्थक नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि पहले अविद्या को जानने के पश्चात ही विद्या को जानना चाहिए। विद्या और अविद्या को एक साथ ही जाना जाता है जैसे बुराइयों का जाना और अच्छाइयों का आना एक साथ होता है। बगैर अविद्या को जाने हमें यह पता नहीं चल सकता कि कौन सी चीजें तयाज्य हैं।

– अन्धा होते हुए भी अन्धा न होना क्या हैॽ जो व्यक्ति विषयों को नहीं देखता और यह जान गया है कि देखता तो कोई ओर है और ये आंखें देखने की शक्ति के रहने का स्थान मात्र हैं, ऐसा व्यक्ति न देखते हुए भी अन्धा नहीं है।

– इतिहास भी एक प्रमाण है। वेद के रहस्यों को जानने के लिए, उसमें कही बातों को इतिहास की घटनाओं से जोड़ कर देखो। वेद में दो तरह की आज्ञाएं हैं-विधि अर्थात हमें क्या करना चाहिए और निषेध अर्थात हमें क्या नहीं करना चाहिए। वेद की एक आज्ञा है कि हमें जुआ नहीं खेलना चाहिए परन्तु महाभारत काल में जिसने जुआ खेला उसी को हम धर्मराज कहते हैं। वेद के अनुसार हमें चोरी नहीं करनी चाहिए परन्तु आज हम श्री कृष्ण जैसे महान व्यक्तित्व को भी भजनों में चोर कह कर पुकारते हैं जबकि किसी प्रियजन को प्यार से भी चोर कहना गलत है।

-व्यक्ति कम कर्म करके अधिक पाना चाहता है- यही जुआ खेलना है।

– कोई व्यक्ति भी असफल होना नहीं चाहता। सफलता और असफलता का कारण ईश्वर ही है-ऐसा नहीं है क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है। जिन कार्यों में कारणों की पूर्णता होती है, वे कार्य सफल हो जाते हैं और जिन कार्यों में कारणों की पूर्णता नहीं होती, वे कार्य असफल हो जाते हैं। इसलिए हमें सफलता के पीछे के कारणों का ध्यान करना चाहिए। विद्या का होना सफलता की मूलभूत आवश्यकता है। विद्या से ही व्यक्ति जान सकता है कि उसका लक्ष्य उचित भी है या नहीं, उचित लक्ष्य क्या हैॽ,लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किन साधनों की आवश्यकता है, साधनों को प्राप्त और प्रयोग करने का क्या तरीका है। सफलता के अन्य कारणों में हम निम्नलिखित को गिन सकते हैं- लक्ष्य को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा, स्वास्थ्य, मार्ग में आने वाली बाधाओं को पार करने हेतु घोर तपस्या, अन्तिम परिणाम आने तक सतत् पुरुषार्थ, आत्मविश्वास, ईश्वर की न्याय व्यवस्था पर अटूट श्रद्धा आदि। इन कारणों को प्राप्त करने का एक बहुत अच्छा तरीका है-आदित्यों (वे वस्तुएं जिन्में जोड़ने की अदभुत क्षमता है) का संग करना।

– अभिवादन ‘नमस्ते’ कह कर करना चाहिए। जब गाली देने से बदले में गाली या मार मिलती है तो यह तो हो ही नहीं सकता कि ‘नमस्ते’ कहने से कुछ न मिलता हो। ‘नमस्ते’ शब्द का अर्थ है ‘सम्मान में झुकना’। अभिवादन के लिए ‘नमस्ते’ शब्द सबसे अच्छा है। अभिवादन करने से चार चीजें-आयु, विद्या, यश, और बल मिलती हैं। संसार में भिन्न भिन्न वस्तुएं जैसे कपड़ा, मिठाई, कम्पयूटर आदि भिन्न भिन्न दुकानों या जगहों पर मिलती हैं। इसी प्रकार आयु, विद्या, यश और बल भी एक ही जगह पर नहीं मिलते। अपने माता, पिता और परिजनों का अभिवादन करने से आयु और बल की प्राप्ती होती है, अपने आचार्यों का अभिवादन करने से विद्या की प्राप्ती होती है और अन्यों का अभिवादन करने से यश की प्राप्ती होती है।

– हमारे उत्थान के लिए आवश्यक चीजें हैं-ज्ञान की आंखें (आंखें तो आत्मा के देखने के साधन मात्र हैं, वस्तुतः आंखों में देखने की क्षमता देने वाला परम पिता परमेश्वर है), उत्थान के प्रति निरन्तर जागरूकता और परमेश्वर की उपासना।

– सुख सन्तानों की संख्या पर निर्भर नहीं करता बल्कि सन्तानों की उत्तमता पर निर्भर करता है। सन्तानों की उत्तमता उनके ज्ञान प्राप्त करने की सीमा पर निर्भर करती है। सन्तान की पहली पाठशाला तो उसकी मां है। देने की पहली कसौटी यह है कि जो चीज हम देना चाहते हैं वह चीज पहले हमारे स्वयं के पास होनी चाहिए। अगर हम सन्तानों को ज्ञान देना चाहते हैं तो पहले वो ज्ञान हमारे अपने पास होना चाहिए। जरूरी नहीं कि जिस विषय में हम पारंगत हों हमारी सन्तान की रुचि भी उस विषय में हो इसलिए सभी विषयों का प्रारम्भिक ज्ञान अर्थात् Elementary Knowledge तो हम सभी को होना ही चाहिए। आज हमारी सन्तानों को ना तो जीवन के लक्ष्य का पता है और ना ही उस ओर बढ़ने के तरीके का। यह तो सभी मानेगें कि किसी train की speed 1000 km per hour भी क्यों न हो अगर उस train का कोई destination न हो तो कोई भी उसमें सवार होना नहीं चाहेगा।